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प्रासुक जल और अठपहरे शुद्ध घी में मर्यादित आटे से बना हलुआ भी क्षणभर को पेट में चला जावे और तत्काल वमन हो जावे तो उसे कोई देखना भी पंसद नहीं करता। ऐसी अपवित्र है यह देह और इसमें रहनेवाला भगवान आत्मा परमपवित्र पदार्थ है।
"आनन्द का रसकन्द सागर शान्ति का निज आतमा। सब द्रव्य जड़ पर ज्ञान का घनपिण्ड केवल आतमा।।"
यह परम पवित्र भगवान आत्मा आनन्द का रसकंद ज्ञान का घनपिण्ड, शान्ति का सागर, गुणों का गोदाम और अनन्त शक्तियों का संग्रहालय है।
इसप्रकार हमने देह की अपवित्रता तथा भगवान आत्मा की पवित्रता और महानता पर बहुत विचार किया है, पढ़ा है, सुना है; पर देह से हमारा ममत्व रंचमात्र भी कम नहीं हुआ और आत्मा में रंचमात्र भी अपनापन नहीं आया। परिणामस्वरूप हम वहीं के वहीं खड़े हैं, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाये हैं।
देह से अपनापन नहीं टूटने से राग भी नहीं टूटता; क्योंकि जो अपना है, वह कैसा भी क्यों न हो, उसे कैसे छोडा जा सकता? इसीप्रकार आत्मा में अपनापन स्थापित हुए बिना उससे अंतरंग स्नेह भी नहीं उमड़ता। अतः हमारे १. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : बारहभावना, अशुचिभावना अपने में अपनापन
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