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पुत्र के वियोग में सेठ का घर भी अस्त-व्यस्त हो गया था। अब न किसी को खाने-पीने में रस रह गया था और न आमोद-प्रमोद का प्रसंग ही। घर में सदा मातम का वातावरण ही बना रहता। ऐसे घरों में घरेलू नौकर भी नहीं टिकते; क्योंकि वे भी तो हंसी-खुशी के वातावरण में रहना चाहते हैं । अत: उनका चौका बर्तन करने वाला नौकर भी नौकरी छोड़ कर चला गया था। अत: उन्हें एक घरेलू नौकर की आवश्यकता थी। आखिर उस सेठ ने उसी हलवाई से नौकर की व्यवस्था करने को कहा और वह सात-आठ साल का बालक अपने ही घर में नौकर बन कर आ गया ।
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अब माँ बेटे के सामने थी और बेटा माँ के सामने; पर माँ बेटे के वियोग में दुःखी थी और बेटा माँ-बाप के वियोग में। माँ भोजन करने बैठती तो मुँह में कौर ही नहीं दिया जाता, बेटे को याद कर-करके रोती-बिलखती हुई कहती"न जाने मेरा बेटा कहाँ होगा, कैसी हालत में होगा ? होगा भी या नहीं? या किसी के यहाँ चौका बर्तन कर रहा होगा ?"
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वहीं खड़ा बेटा एक रोटी माँगता तो झिड़क देती" जा अभी काम कर, बचेगी तो फिर दूँगी । काम तो करता नहीं और बार - बार रोटी माँगने आ जाता है । " उसी बेटे के लिए रोती-बिलखती और उसे ही रोटी
मैं स्वयं भगवान हूँ