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महापुराण 12 और 118 आकृति 7 ( मार्शल कृत मोहेंजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हए देवताओंको सूचित करती हैं। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूपसे मिलती है जैसे मथुरा संग्रहालयमें स्थापित श्री ऋषभदेवकी मूर्तिमें। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ऋषभका अर्थ है बैल जो आदिनाथका लांछन है; मुहर संख्या एफ. जी. एच. फलक दोपर अंकित देवमूर्तिमें एक बैल ही बना है। सम्भव है, यह ऋषभका ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा है तो शवधर्मकी तरह जैनधर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यतातक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके बीचकी खोयी हुई कड़ीका भी एक उभय साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' (हिन्दू सभ्यता, पृ. 23-24) ऋषभ और शिव
डॉ. मुकर्जीके 'उभय साधारण सांस्कृतिक परम्परा' शब्द बड़े महत्त्वके हैं। उभय शब्दसे यदि जैनधर्मके प्रवर्तक ऋषभ और शवधर्मके आधार शिवको लें तो हमें उन दोनोंके मध्य में एक साधारण सांस्कृतिक परम्पराका रूप दृष्टिगोचर होता है : क्योंकि दोनोंमें कुछ आंशिक समता है। ऋषभदेवका चिह्न बैल है जो मोहेंजोदड़ोसे प्राप्त सील नं. 3 से 5 तकपर अंकित है तथा कायोत्सर्ग मुद्रामें स्थित आकृतियोंके साथ भी बना है । उधर शिवके साथ भी नन्दि है । इधर ऋषभदेवका निर्वाण कैलास पर्वतसे माना जाता है उधर शिव भी कैलासवासी माने जाते हैं । डॉ. भण्डारकरने शिवके साथ उमाके सम्बन्धको उत्तरकालीन बतलाया है । इसी तरह महाभारत अनुशासन पर्वमें महादेवके नामोंमें शिवके साथ ऋषभ नाम भी गिनाया है । यथा'ऋषभ त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः ।'
अध्याय 14, श्लोक 18 इस परसे यह शंका हो सकती है कि दोनोंका मूल एक तो नहीं है अथवा एक ही मूल पुरुष दो परम्पराओं में दो रूप लेकर तो अवतरित नहीं हुए हैं ?
डॉ. आर. जी. भण्डारकरके मतानुसार 250 ई. के लगभग पुराणोंका पुननिर्माण प्रारम्भ हुआ और गुप्तकालतक यह जारी रहा। इस तरह उपलब्ध पुराण गुप्तकालकी रचना है। श्रीमद्भागवतमें जो ऋषभावतारका पूरा वर्णन है, उसमें स्पष्ट लिखा है कि वातरशन (नग्न) श्रमणोंके धर्मका उपदेश करनेके लिए उनका जन्म हुआ था। तथा जन्महीन ऋषभदेवजी का अनुकरण करना तो दूर रहा, अनुकरण करनेका मनोरथ भी कोई अन्य योगो नहीं कर सकता, क्योंकि जिस योगवल (सिद्धियों) को असार समझकर ऋषभदेवने स्वीकार नहीं किया, अन्य योगी उन्हींको पानेकी चेष्टा करते हैं।
__ यह सब जानते और मानते हैं कि भगवान महावीर अन्तिम जैन तीर्थकर थे और पुराणोंकी रचना उनके बहुत पश्चात् हुई है। फिर भी उनके पूर्वज ऋषभदेवको नग्न श्रमणोंके धर्मका उपदेष्टा बतलाना यह प्रमाणित करता है कि ऋषभदेव अवश्य ही ऐतिहासिक व्यक्ति होने चाहिए।
जैन महापुराण
चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र-इन्हें जैन धर्ममें सठ-शलाका- पुरुष कहते हैं। इनका वर्णन करनेवाला ग्रन्थ महापुराण कहलाता है। इससे उसे वेसठशलाका-पुरुष-पुराण भी कहते हैं। आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणके प्रारम्भमें कहा है, 'मैं वेसठ प्राचीन
णको कहूँगा।' उन्होंने महापुराण नामकी सार्थकता भी बतलायी है। उनका महापुराण संस्कृतके अनुष्टुप् छन्दमें रचा गया है। वह उसे अधूरा ही छोड़कर स्वर्गवासी हो गये थे। उनके पश्चात् उनके शिष्य गुणभद्रने उसको पूर्ण किया था।'
जिनसेनाचार्यके पश्चात् ही पुष्पदन्तने अपभ्रंश भाषामें अपना महापुराण रचा। महापुराणका प्रथम भाग, जिसमें भगवान् ऋषभदेवका चरित वर्णित है, आदिपुराण कहा जाता है और शेष भाग उत्तरपुराण
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