Book Title: Mahapurana Part 1 Author(s): Pushpadant, P L Vaidya Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ प्रधान सम्पादकीय भगवान् ऋषभदेव "जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंके नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।" भारतके भूतपूर्व राष्ट्रपति तथा प्रसिद्ध दार्शनिक स्व. डॉ. राधाकृष्णन्ने अपने भारतीय दर्शनमें उक्त विचार प्रकट किये हैं। भागवतमें इस बातका भी उल्लेख है कि महायोगी भरत ऋषभदेवके सौ पुत्रीम ज्येष्ठ थे और उन्हींसे यह देश भारतवर्ष कहलाया __"येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठ गुण आसीत् । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।" -भागवत ५-४-९ वायुपुराण 33/51-52 और मार्कण्डेय पुराण 53/39-40 में भी इसी प्रकार की अनुश्रुति पायी जाती है । ये उद्धरण जैन अनुश्रुतिकी ऐतिहासिकता सूचित करते हैं। ___ सिन्धु घाटीमें भी दो नग्न मूर्तियां मिली हैं इनमेंसे एक कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित पुरुषमूर्ति है । कुछ जैनेतर विद्वान् भी पुरुष मूर्तिकी नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्राके आधारपर ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीथंकरसे रहा है। सिन्धु घाटीके उत्खननमें योगदान करनेवाले श्रीरामप्रसाद चन्दाका एक लेख कलकत्तासे प्रकाशित पत्रिका माडर्न रिव्युके जून 1932 के अंक प्रकाशित हआ था। उसमें उन्होंने लिखा है, "मोहेंजोदड़ोसे प्राप्त पत्थरकी मूर्ति, जिसे मि. मैके पुजारीकी मूर्ति बतलाते है, योगीकी मूर्ति है और वह मुझे इस निष्कर्षपर पहुँचने के लिए प्रेरित करती है कि सिन्धु घाटीमें योगाभ्यास होता था और योगीकी मुद्रामें मूर्तियां पूजी जाती थीं । सिन्धु घाटीसे प्राप्त मोहरोंपर बैठी अवस्थामें अंकित देवताओंकी मूर्तियाँ ही योगकी मुद्रामें नहीं हैं किन्तु खड़ी अवस्थामें अंकित मूर्तियां भी योगकी कायोत्सर्ग मुद्राको बतलाती हैं। मथुरा म्युजियममें दूसरी शतीकी कायोत्सर्गमें स्थित एक वृषभदेव जिनकी मूर्ति है । इस मूर्तिकी शैलीसे सिन्धुसे प्राप्त मोहरोंपर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैली बिलकुल मिलती है।" 'ऋषभ या वृषभका अर्थ होता है बैल । और वृषभदेव तीर्थकरका चिह्न भी बैल है। मोहर नं. 3 से 5 तककी ऊपर अंकित देवमूर्तियोंके साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभका पूर्वरूप हो सकता है। शवधर्म और जैनधर्म जैसे दार्शनिक धर्मों के प्रारम्भको पीछे ठेलकर ताम्रयुगीन कालमें ले जाना किन्हींको अवश्य ही एक साहसपूर्ण कल्पना प्रतीत होगी, किन्तु जब एक व्यक्ति ऐतिहासिक और प्राग्-ऐतिहासिक सिन्धु घाटी सभ्यता के बीच में एक अगम्य झाड़ी-झंखाड़ होनेकी उससे भी साहसपूर्ण कल्पना करनेके लिए तैयार है तो यह अनुमान, कि सिन्धु मोहरोंपर अंकित बैठी हुई और खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैलीमें घनिष्ठ सादृश्य है, उस सुदूर कालमें योगके प्रसारको सूचित करता है ।' . इस तरह डॉ. चन्दाने आचार्य जिनसेन रचित महापुराणके 18वें पर्वमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके ध्यानके वर्णनके आधारपर अपना उक्त अभिमत प्रस्तुत किया था। डॉ. राधाकुमुद मुकुर्जीने अपनी 'हिन्दूसभ्यता' नामक पुस्तकमें डॉ. चन्दाके उक्त अभिमतको मान्यता देते हुए लिखा है-'श्री चन्दाने 6 अन्य मुहरोंपर खड़ी हुई मूर्तियोंकी ओर भी ध्यान दिलाया है। फलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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