________________
आत्मा का बोध होना निश्चय सम्यक्त्व है और तत्त्वों का बोध होना व्यवहारिक सम्यक्त्व है। यही तथ्य आचार्य शंकर की वाणी में उद्भाषित हुआ है
मनुष्यत्त्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः।
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रह हैतुकम् ॥ अर्थात् मनुष्य जीवन, मुमुक्षा भाव एवं महापुरुषों की सन्निधि-ये तीनों दुर्लभ हैं, दैविक अनुग्रह से ही इनकी उपलब्धि संभव है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भक्त हनुमान से पूछा-हनुमान! तेरा और मेरा क्या संबंध है? हनुमान ने अनेकान्त की भाषा में उत्तर देते हुए कहा
देहभावेन दासोस्मि, जीव भावे त्वदंशकः।
आत्म भावे त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥ ... देह दृष्टि से यह सर्व विदित है कि आप स्वामी हैं और मैं सेवक हूँ। जीव दृष्टि से आप पूर्ण हैं और मैं अपूर्ण हूँ, आप शुद्ध हैं मैं अशुद्ध हूँ, आप निर्मल हैं मैं समल हूँ।
___आत्म दृष्टि से जो आप हैं वह मैं हूँ, जो स्वरूप आपका है वही मेरा है। स्वरूप की दृष्टि से आपमें और मेरे में कोई अन्तर नहीं है।
हनुमान के इस पारदर्शी चिंतन से श्रीराम बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हुए। सचमुच ऐसा चिंतन सम्यक् दृष्टि संपन्नता का प्रतीक है। यह सम्यक् दृष्टि ही बोधि प्राप्ति का बीज है। अभव्य जीव अनंत बार सत्तरह पाप स्थानों का वर्जन करता हुआ श्रमणोचित्त उग्र क्रिया के प्रभाव से नो ग्रैवेयक स्वर्ग में अहमिन्द्र बन जाता है। वहां उसमें लेश्या भी शुक्ल होती है फिर भी एक मिथ्यात्व के शल्य से वह अनंत संसारी ही रहता है इसलिए मोक्षार्थी को मिथ्यात्व का शल्य निकालना परम आवश्यक है। मिथ्यात्व के एक बार हट जाने और सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर चारित्र आता ही है भले ही वह भवान्तर में आए। इसीलिए आचार्य तुलसी की हंस मनीषा ने संगान किया
ज्ञान से निज को निहारें, दृष्टि से निज को निखारे। आचरण की उर्वरा में लक्ष्य-तरुवर लहलहाएँ। भाव भीनी वंदना भगवान चरणों में चढ़ाए ॥"
बोधि की महत्ता
धर्म का मूल सम्यक् दर्शन है।' जो सम्यक् दर्शन से रहित है उन्हें आत्मोप
४ / लोगस्स-एक साधना-२