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दुःखों का निवारक कहा गया है ।" आवश्यक सूत्र में कायोत्सर्ग के चार प्रयोजन उपलब्ध हैं१३—
१. पायच्छितकरणेणं
२. विसोहीकरणेणं
३. विसल्लीकरणेणं
४. पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए- पाप कर्मों का घात करने के लिए आवश्यक निर्युक्ति में कायोत्सर्ग के प्रयोजन की चर्चा करते हुए लिखा है
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प्रायश्चित करने के लिए
विशुद्ध करने के लिए शल्यरहित होने के लिए
पावुघाई कीरह उस्सग्गो मंगलंति उद्देसो । अणुवहिय मंगलणं मा हुज्ज कहिंच णे विग्घं ॥४
कायोत्सर्ग मंगल है | पाप का निराकरण करने के लिए यह किया जाता है । मंगल का अनुष्ठान न करने पर कहीं हमारे कार्य में विघ्न न आ जाए इस दृष्टि से कार्य के प्रारंभ में मंगल का अनुष्ठान करणीय है ।
उपरोक्त विश्लेषण से कायोत्सर्ग के प्रमुखतः दो उद्देश्य हमारे सामने स्पष्ट होते हैं१५
१. मंगल
२. विशुद्धि
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साधना के क्षेत्र में सबसे बड़ा मंगल है - कायोत्सर्ग। दूसरा उसका उद्देश्य है-विशुद्धि। एक साधक कायोत्सर्ग की प्रतिमा में स्थिर होकर अपने पूर्वकृत प्रमाद का परिशोधन करता है। भेद-विज्ञान की अनुभूति, पृथक अस्तित्व का अनुभव, ममत्व का विसर्जन और शक्ति की सुरक्षा के लिए भी कायोत्सर्ग का बहुत बड़ा महत्त्व है।
घटना प्रसंग दस अक्टूबर सन् १६६८ का है। गुरुदेव श्री तुलसी का चातुर्मास श्री डूंगरगढ़ (राजस्थान ) था । वहां उनके सान्निध्य में तेरापंथ महासभा का अधिवेशन आयोजित था । उस अधिवेशन में दौलतगढ़ निवासी इंदौर प्रवासी मदनलालजी रांका भी आए हुए थे। साथ में पत्नि शशिकला, पुत्र निलेश, पुत्री सीमा, किरण और श्रीमति राजू घीया थी । उन्होंने उस समय चार-पांच दिन गुरुदेव की उपासना की। जिस दिन वहां से रवाना हो रहे थे, गुरुदेव के पास मंगलपाठ सुनने गये । गुरुदेव ने कहा - भाया ! आज । वे गुरुदेव के इंगित को नहीं समझ सके और बोले गुरुदेव ! हमें एकम् को इंदौर पहुँचना जरूरी है। गुरुदेव से मंगलिक सुनकर वे जैसे ही रवाना हुए आंधी तूफान शुरू हो गया, फिर भी गुरु इंगित की तरफ ध्यान नहीं गया। वहां से कुछ आगे बढ़े की गाड़ी की चैन टूट गई फिर भी नहीं संभले ।
७४ / लोगस्स - एक साधना-२