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४. शरीर प्रेक्षा ५. चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा ६. लेश्या ध्यान ७. भावना ६. अनुप्रेक्षा
उपरोक्त आठ इकाईयों में कायोत्सर्ग को प्रथम स्थान पर रखने का प्रमुख प्रयोजन यही माना गया है कि इसके द्वारा ध्यान की पृष्ठभूमि निर्मित होती है। जैन साधना पद्धति का आदि और अंतिम बिंदु है कायोत्सर्ग। भगवान महावीर का शरीर पर इतना अनुशासन था कि वे सोलह दिन-रात तक खड़े-खड़े ध्यान कर लेते थे। भगवान ऋषभ और बाहुबली ने एक वर्ष तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग किया। आगम में एक मुनि के लिए बार-बार कायोत्सर्ग करने का विधान है। गमनागमन के पश्चात् मुनि ईर्यापथिक (प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग) किये बिना कुछ भी न करे। मुनि भिक्षा से लौटकर स्थान पर आए तो कायोत्सर्ग करें। शौच से निवृत्त होकर स्थान पर आने के पश्चात् कायोत्सर्ग करे। प्रतिलेखन के पश्चात् और प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का विधान है। वाचना, स्वाध्याय और ध्यान की क्रियाओं में कायोत्सर्ग करना अनिवार्य है। यह कायोत्सर्ग लोगस्स अथवा नमस्कार महामंत्र का किया जाता है। ध्यान के बाद लोगस्स का पाठ बोलना-यह विधान आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दसवैकालिक में उपलब्ध होता है पर ध्यान में लोगस्स का पाठ बोलना श्वासोच्छ्वास की संख्या आदि के आधार पर बहुश्रुत आचार्यों द्वारा निर्धारित किया गया प्रतीत होता है। कायोत्सर्ग में स्थित मुनि के कर्म क्षय होते हैं इसलिए गमनागमन, विहार आदि के पश्चात बार-बार कायोत्सर्ग करना चाहिए। यात्रा अथवा किसी नये कार्य के प्रारंभ में नमस्कार महामंत्र अथवा लोगस्स का कायोत्सर्ग करना मंगलदायक माना गया है। तीन, नौ या इक्कीस नमस्कार महामंत्र का कायोत्सर्ग किया जा सकता है। तीन नवकार का कायोत्सर्ग कर कार्य करने चलें और यदि अपशकुन हो जाये तो दूसरी बार वहीं पर नौ नवकार का कायोत्सर्ग कर आगे चलें फिर अपशकुन हो जाये तो तीसरी बार वहीं पर इक्कीस नमस्कार महामंत्र का कायोत्सर्ग करना चाहिए। तीसरी बार भी यदि बाधा आए तो सोचना चाहिए इस काम को करना हितकर नहीं है, उसे उस समय छोड़ देना चाहिए। प्रत्येक कार्य के आरंभ में कायोत्सर्ग करना आवश्यक है, यह ध्यान है। इसका महत्त्वपूर्ण कारण है कि इससे विद्युत का एक वलय बनता है जिससे बाहर की बाधाएं अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। कोई भी शक्ति उसमें प्रवेश नहीं कर सकती। मंगलकारी होने के कारण ही लोगस्स को “सव्वदुक्ख विमोक्खणं-समस्त
लोगस्स और कायोत्सर्ग / ७३