Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 02
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 173
________________ चौबीसी : दो संस्मरण १३ चौबीसी के कुछ पद्यों में विचित्र रहस्य छुपा है। उन रहस्यों का उद्घाटन करते हुए मुनिश्री चम्पालालजी ( मीठिया) ने 'श्रमण सागर' - मुनि श्री सागरमलजी को दो घटना प्रसंग सुनाए जो वीतराग वंदना में लिपिबद्ध हैं, और निम्न प्रकार से हैं १. क्लेश निवारक गुरु मंत्र भंडारी बादरमल-सा राजमान्य व्यक्ति थे । जोधपुर महाराज तखतसिंहजी के युग में तो उनके पत्थर तैरते थे । एक प्रसिद्ध कहावत थी उस जमाने की "बार-बारै बादरियों, मांही नाचै नाजरियो" । युवराज जसवंतसिंहजी ने एक रेबारी को भेज भंडारी - सा से सांड मागी । भंडारीजी इन्कार हो गये । शिकायत गई। कुंवर-सा ने रूकी लिख भेजी "भंडारीजी ! सांड भिजवा देना"। बादरमल-सा ने मनाही कर दी और प्रत्युत्तर में कहा -जाओ, महाराज कुमार से अर्ज करना कि महरबानी कर रसाले से ऊँट मंगवा लेंगे तो अच्छा होगा। युवराज जसवंतसिंह जी ताव खा गये । निजी आदमी को भेजकर कहलवायाभंडारीजी ! सांड आपके बाप की है या मेरे बाप की ? भंडारीजी ने मुजरों के साथ अर्ज दुहराई - सरकार ! सांड आपकी है या आपके बाप की है। (बड़े सरकार की ) वह आपके लिए हाजिर है, पर जरा बड़े हुजूर का लिखा रूक्का साथ भिजवायें, वरना सांड नहीं मिलेगी। बस, युवराज कुमार खफा हो गये । चापलूसों ने उन्हें उकसाया। उन्होंने गांठ बांध ली। मौके की तलाश की। भंडारीजी सहज भाव से अपने आप में मस्त थे । महाराज जसवंतसिंहजी ( १६३० विक्रमी ) सत्ता में आए। साथी संगलियों की पांचों अंगुलियां घी में थी । किसी बात को लेकर पुराना मुद्दा उखड़ा। बात याद आई । रातों-रात भंडारीजी की गिरफ्तारी के आदेश निकले। सुबह पहले-पहले हवेली घेर ली गई। कहते हैं डीडवाना वाले सिंघीजी ने युक्ति भिड़ाई । भंडारीजी सुरक्षित घेरे के बीच से निकले । भंडारी परिवार के पांच बच्चे नजरबंद हुए। पोकरण की हवेली में महिनों तक उन्हें रखा गया । वह एक ऐसा समय था जब भंडारीजी विकट समस्या में थे । अध्यात्म प्रवृत्त व्यक्ति को धर्म शरण के अतिरिक्त चारा ही क्या है? भंडारीजी जैसे संघनिष्ठ, गुरुभक्त और शासन सेवी की इस स्थिति पर युवाचार्य मघवागणी का हृदय पिघला । उन्होंने भंडारीजी को चौबीसी का एक पद्य रटने का सुझाव दिया। भंडारी बादरमलजी ने अध्यवसाय पूर्वक जाप प्रारंभ किया । चौबीसी और आचार्य जय / १४७

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