Book Title: Logassa Ek Sadhna Part 02
Author(s): Punyayashashreeji
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 85
________________ सिद्धत्व हमारा स्वभाव सिद्ध अधिकार सिद्धत्व हमारा स्वभाव सिद्ध अधिकार है, न केवल अधिकार है बल्कि स्वभाव भी है। आत्मा न मन है, न वचन है और न काया है। आत्मा सिर्फ आत्मा है, निरालम्ब है, निष्कलुष है, निर्दोष, मोहरहित, भयमुक्त व वीतराग है। क्रोध आदि आत्मा के स्वभाव नहीं आरोपित हैं। पानी का स्वभाव उष्णता नहीं शीतलता है, खोलता हुआ पानी भी अग्नि को बुझायेगा ही, जलायेगा नहीं। जैसे जल का स्वभाव शीतलता है गरमाहट आरोपित है वैसे ही आत्मा का स्वभाव वीतरागता है, क्रोध आदि आरोपित है सांसारिकता की निशानी है। सिद्धों का स्वरूप सिद्ध अशरीर है। वे चैतन्य धन और केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन से संयुक्त होते हैं। साकार और अनाकार उपयोग उनका लक्षण होता है। सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने से सर्वभाव गुण पर्याय को जानते हैं और अपनी अनंत केवल दृष्टि से सर्वभाव देखते हैं। न मनुष्यों को ऐसा सुख होता है और न सब देवों को, जैसा सुख अव्याबाध गुण प्राप्त सिद्धों को होता है। जैसे कोई म्लेच्छ नगर की अनेक विध विशेषताओं को देख चुकने पर भी उपमा न मिलने से उनका वर्णन नहीं कर सकता, उसी तरह सिद्धों का सुख अनुपम होता है, उनकी तुलना नहीं हो सकती।' सर्व कार्य सिद्ध होने से वे सिद्ध हैं। सर्व तत्त्व के पारगामी होने से वे बुद्ध हैं। संसार समुद्र का पार पाने से वे पारंगत हैं। हमेशा सिद्ध रहेंगे इस दृष्टि से वे परम्परागत हैं। सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु उपरोक्त गुणों से युक्त अनंत सिद्ध भगवन्तों का ध्यान 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु'-इस चतुर्थ चरण के साथ ज्ञान-केन्द्र पर श्वेत रंग में किया जाता है। वैसे यह प्रयोग केवल 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु'-इस मंत्र पद का करें तो दर्शन-केन्द्र पर अरुण रंग में भी किया जाता है। जब इस मंत्र पद को “चंदेसु निम्मलयरा... दिसंतु"-इस पूरे पद्य के साथ करें तो ज्ञान-केन्द्र पर श्वेत रंग में किया जाता है। यहां पर इस केन्द्र में ऐसा अनुभव होना चाहिए कि परम आत्मा के साथ मेरा संपर्क स्थापित हा रहा है। योग की भाषा में इस केन्द्र को सहस्रार चक्र कहने का कारण भी यही है कि यहां ज्ञान के सहस्रों स्रोत खोले जा सकते हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि हेतु एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग का उल्लेख किया है-ॐ हीं अहँ नमः। सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु / ५६

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