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स्मृति विकास व ज्ञान तंतुओं की सक्रियता के लिए इस केन्द्र पर पीले रंग की धारणा के साथ 'ॐ' का जप अथवा ध्यान किया जाता है। अद्भुत ज्ञान शक्ति
सन् १६४३ में पीटर हरकांस को एक दिवार पर पुताई करते हुए सीढ़ी से गिरने पर अलौकिक ज्ञान-शक्ति मिली जिससे वह भूत और भविष्य के बारे में काफी कुछ बता सकता था। गिरने पर जब उसे अस्पताल में लाया गया और वह कुछ स्वस्थ हो गया, तब उसने साथ के बिस्तर पर लेटे रोगी की ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा-“अरे तुम्हारी मां तो मरणासन्न है और तुम यहां हो। तुम्हें तुरंत अपनी मां के पास जाना चाहिए। इसी अस्पताल में दूसरे एक मरीज को यह बात बताकर उसने सबको आश्चर्य चकित कर डाला कि उसने सात दिन पूर्व एक दुकान से एक अटैची की चोरी की थी, जिसमें अमुक-अमुक वस्तुएं थीं। पहले तो डॉक्टरों ने उसे मजाक समझा लेकिन जाँच करने पर सारी बातें सच निकलीं तो डॉक्टर आश्चर्य चकित रह गये। ___पीटर हरकांस ने प्राप्त दिव्य ज्ञान शक्ति से लोगों की खोई हुई सम्पत्तियों एवं आदमियों के बारे में बताया। वह किसी मशीन को छूकर ही बता सकता था कि इस मशीन के किस पुर्जे को बदलना है, लेकिन सबसे अधिक प्रभावशाली उसका कार्य अपराधों का सुराग बताने का था। उसने अपहृत बच्चों, चोरों के गिरोहों और हत्याकाण्डों के अभियुक्तों के बारे में सही जानकारी दी। बाद में उसने अमेरिका में कई जगहों पर तैल तथा सोने की खानों की सही जानकारी देकर वैज्ञानिकों को भी चकित कर दिया।
उपरोक्त घटना प्रसंग से यह तथ्य निकलता है कि कभी-कभी अचानक किसी चैतन्य केन्द्र पर चोट होने से उसका जागरण हो जाता है और व्यक्ति भूत, भविष्य तथा वर्तमान का ज्ञाता बन जाता है, उसकी अतीन्द्रिय क्षमता विकसित हो जाती है। चैतन्य केन्द्र हमारे शरीर में सन्निहित विविध प्रकार की शक्तियों के अद्भुत केन्द्र हैं। उन केन्द्रों पर अर्हत् के ध्यान का, परमात्मा के ध्यान का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि हमारी रासायनिक और विद्युत चुम्बकीय दोनों प्रकार की प्रणालियों में परिवर्तन आता है। उनके शांत परमाणुओं का ध्यान करने से हमारे विद्युत तंत्र में उभरती अशुद्ध तरंगें शुद्धता में तरंगित हो जाती हैं।
इसी प्रकार तप वृद्धि हेतु वर्धमान महावीर व आदिनाथ भगवान का ध्यान, शांति के लिए अर्हत् शांतिनाथ का ध्यान, ब्रह्मचर्य पुष्टि के लिए नेमिनाथ का ध्यान तथा विघ्न निवारणार्थ अर्हत् पार्श्व का ध्यान किया जाता है। योग की क्रिया
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु / ६१