________________
१. भेद विज्ञान-जड़-चेतन की भिन्नता का बोध । २. आत्मौपम्य बुद्धि-सबको आत्मतुल्य समझना। ३. आग्रह की अल्पता-सत्य के प्रति सहज दृष्टि। ४. क्रोध आदि कषायों की अल्पता-समभाव। ५. पापभीरुता-पापात्मक प्रवृत्तियों में सतत् जागरूकता। बोधि प्राप्ति के बाधक तत्त्व (सम्यक्त्व के दूषण)
जैन श्रमणोपासक के लिए श्रद्धा के पांच दोष बतलाए गए हैं।२३ १. शंका-अपने आराध्य, लक्ष्य या तत्त्व के प्रति संशय। २. कांक्षा-बाह्याडम्बर देखकर अपने इष्ट या धर्म तत्त्व को छोड़ अन्य के प्रति
आकांक्षा। ३. विचिकित्सा-क्रिया, साधना या ध्यान, स्मरण के फल में संदेह । ४. परपाषण्ड प्रशंसा-पराये इष्ट तत्त्व या लक्ष्य की प्रशंसा अर्थात् मिथ्यादृष्टि,
व्रतभ्रष्ट पुरुषों की प्रशंसा। ५. परपाषण्ड परिचय-पराये इष्ट, तत्त्व अथवा लक्ष्य के प्रति प्रगाढ़ संसर्ग, __ स्नेह या राग परिचय अर्थात् मिथ्यादृष्टि, व्रतभ्रष्ट पुरुषों का परिचय। बोधि प्राप्ति के साधक तत्त्व (सम्यक्त्व के पांच भूषण)२४ १. स्थैर्य-धर्म में स्थिर रहना। २. प्रभावना-धर्म की महिमा बढ़ाना। ३. भक्ति-भक्ति करना। ४. कौशल-धर्म की जानकारी प्राप्त करना। ५. तीर्थसेवा-साधु संघ की उपासना। बोधि को स्थिर रखने हेतु निम्नोक्त सिद्धान्तों को जानना जरूरी है। १. आत्मा है। २. आत्मा द्रव्य रूप से नित्य है। ३. आत्मा अपने कर्मों की कर्ता है। ४. आत्मा अपने कृत कर्मों को भोगता है। ५. आत्मा कर्ममल से मुक्त होता है।
बोधि दुर्लभ भावना का चिंतन भी बोधि स्थिरता का महान हेतु है।
८ / लोगस्स-एक साधना-२