________________
६. सागरवरगंभीरा
"सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु"-मंत्र का प्रयोग विशुद्धि-केन्द्र पर नीले रंग में करते हुए सिद्ध भगवान से सिद्धि की कामना की जाती है। सागर भी शीतल और पवित्र, नीला रंग भी शीतल और पवित्र तथा अरिहंत और सिद्ध भगवान भी शीतल (शुक्ल लेश्या) और पवित्र-यह एक अनुपम और अद्वितीय प्रयोग है-पवित्रता को बढ़ाने का और शुभ लेश्याओं में अनुवर्तन करने का।
तीर्थंकर भगवन्तों को सागर के समान गंभीर बताकर उन्हें 'सागरवरगंभीरा' संबोधन से संबोधा गया है। सागर में अनेकानेक नदी, नाले आदि मिलते हैं फिर भी उसमें से पानी नहीं छलकता इसी प्रकार तीर्थंकरों के सामने भी अनुकूल प्रतिकूल कितने भी परिषह क्यों न आएं वे किंचित मात्र भी चलित नहीं होते हैं। जैसे भगवान महावीर ने चंडकौशिक, संगमदेव, गोशालक आदि के महान उपसर्गों को सहन किया था। कला, चातुर्य एवं विद्या का केन्द्र
_ 'सागरवरगंभीरा' मंत्र का प्रयोग विशुद्धि-केन्द्र पर किया जाता है। यह हमारे शरीर में कला, चातुर्य एवं विद्या का केन्द्र है। यह केन्द्र कण्ठ के मध्य भाग में है। स्वास्थ्य के संदर्भ में कण्ठ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बोलने, गाने व खाने में गले का अपना विशिष्ट उपयोग है। कफ प्रकृति का संतुलन इस केन्द्र पर ध्यान करने से होता है। योग के ग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि कोई व्यक्ति गहरी धूप में बैठकर विशुद्धि-केन्द्र पर ध्यान करता है तो उसे ऐसी अनुभूति होती है कि मैं एयरकंडीशन में बैठा हूँ। इस प्रकार यह स्थान शीतलता और पवित्रता का है। विशुद्धि-केन्द्र पर नीले और हरे रंग का ध्यान करने से वासना स्वतः विसर्जित हो जाती है, कम हो जाती है। विशुद्धि केन्द्र पर 'सागरवरगंभीरा' का नीले रंग में ध्यान करते हुए सिद्ध भगवान से सिद्धि की कामना की जाती है। सागर भी शीतल
सागरवरगंभीरा / ५३