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इन मावों पर अनुशासन स्थापित किया जा सकता है। इन दोनों ग्रंथियों का क्षेत्र अत्यन्त छोटा होने पर उनका कार्यक्षेत्र समूचा शरीर है। दर्शन और ज्योति केन्द्र में जो हार्मोन्स बनते हैं, जिन रसो का स्राव होता है, वे जीवन के समस्त कार्यों को नियंत्रित करते हैं। अतः इन दोनों के नियंत्रण का अभिप्राय है-समूचे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्षेत्र पर नियंत्रण, जो अतीन्द्रिय क्षमता की पृष्ठभूमि है।
अनुभूति जन्य ज्ञान निश्चित रूप से चिंतन और सिद्धान्त प्रसूत ज्ञान से अधिक विश्वसनीय, प्रत्यक्ष एवं व्यापक है। मंत्र-विज्ञान में भी हम ज्यों-ज्यों मंत्र की गहराई में उतरेंगे हमारा बौद्धिक एवं सैद्धान्तिक चिंतन छूटता जायेगा और एक विशाल अनुभूति हममें उभरती जायेगी। मंत्र-विज्ञान वास्तव में विश्लेषण-से-संश्लेषण की प्रक्रिया है। अहंकार का पूर्णत्व में विलय मंत्र-विज्ञान द्वारा ही स्पष्ट होता है। अतः मंत्र-विज्ञान को समझने के तीन स्तर हैं१. भाषा का स्तर २. अर्थ का स्तर ३. ध्वनि का स्तर (नाद का स्तर, व्यंजना शक्ति का स्तर) ४. सम्मिश्रण (फलिताथ) __अतः मंत्र की भाषा, उसकी अर्थवत्ता, उसकी भावसत्ता और उसकी ध्वन्यात्मकता को विधिवत समझकर प्रयोग की भूमिका में उतरना अधिक श्रेयस्कर है।
ज्योति-केन्द्र पर श्वेत रंग की परिकल्पना के साथ कुछ अन्य मंत्र पदों का ध्यान अथवा जप भी अनुपम शांति प्रदान करता हैं१. ॐ ह्रीं श्रीं अहँ श्री चन्द्रप्रभवे नमः २. ॐ ह्रीं श्रीं अहँ श्री सुविधि नाथाय नमः
इस जप से वाक् सिद्धि की प्राप्ति, उपशम भाव की वृद्धि तथा जन्म जन्मान्तर के दोषों से मुक्ति होती है। ३. ॐ हीं पार्श्वचन्द्राय नमः ४. ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्री अजित शांतिनाथाय नमः ५. ॐ शांति तथा अहँ का ध्यान ६. ॐ अ सि आ उ सा नमः ७. ॐ ह्रीं श्रीं अहँ श्री शीतलनाथाय नमः निष्कर्ष
प्रमुख रूप में तीर्थंकरों का ध्यान दो प्रकार से किया जा सकता हैं
४२ / लोगस्स-एक साधना-२