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५. आइच्चेसु अहियं पयासयरा
जब प्रभु हृदय में बस जाते हैं तब चेतना का उर्वारोहण होता है। चेतना का उर्ध्वारोहण होने पर प्रेय से श्रेय की ओर प्रस्थान होता है। चैतन्य पर अरुण रंग में 'णमो सिद्धाणं' 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' 'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु' का प्रयोग अन्तर्दृष्टि के जागरण का महत्तम प्रयोग है। इस केन्द्र के जागृत होने से कुशाग्र बुद्धि, एकाग्रता वृद्धि, कार्य क्षमता वृद्धि, कार्य सिद्धि और निर्णायक शक्ति का विकास होता है।
जिस प्रकार लोक तीन भागों में बंटा हुआ है वैसे ध्यान शरीर भी तीन भागों में विभक्त है। प्राचीन साहित्य में 'लोक' शब्द शरीर के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। आयुर्वेद में भी 'लोक' शब्द का एक अर्थ मिलता है शरीर। शरीर लोक के तीन विभाग हैं१. नाभि के ऊपर का भाग ऊँचा लोक २. नाभि का भाग तिरछा लोक ३. नाभि के नीचे का भाग अधोलोक
जो व्यक्ति अपना विकास करना चाहता है उसे उर्ध्व लोक में ज्यादा रहना चाहिए। जो व्यक्ति ऊँचे लोक में नहीं रहता, वह ऊँचा काम नहीं कर सकता। जब चेतना ऊपर के केन्द्रों में रहती है तब उदात्त, परिष्कृत वृत्तियाँ विकसित होती हैं। नाभि, भृकुटि और मस्तिष्क के उर्ध्व भाग में आत्मा और शरीर के संगम बिंदु माने जाते हैं। जितनी भी उदात्त भावनाएँ हैं वे सब हृदय, कंठ और सिर के चक्रों में उपजती हैं। जब प्रभु हृदय में बस जाते हैं तब चेतना का उर्ध्वारोहण होता है। चेतना का उर्ध्वारोहण होने पर प्रेय से श्रेय की ओर प्रस्थान होता है। चैतन्य केन्द्रों की दृष्टि से मस्तिष्क के बाद दर्शन-केन्द्र का स्थान आता है।
यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यहां इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना-इन तीन प्राण धाराओं का संगम होता है। इड़ा का रंग नीला, पिंगला का लाल और सुषुम्ना का रंग गहरा लाल है। इस केन्द्र पर सामान्य तथा हल्के लाल रंग का
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