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किसी के प्रति झुका हुआ नहीं होता केवल सत्य के प्रति उसका झुकाव होता है। केवल सत्य शौध और सत्य जिज्ञासा में जाने वाला ज्ञान के रहस्य को अनावृत्त कर देता है। ज्ञान समाधि की परिपूर्णता की निम्न चार बाते हैं।६
१. विशद ज्ञान होना २. एकाग्रचित्त होना ३. स्वयं स्वयं में प्रतिष्ठित होना ४. दूसरों को सत्य में प्रतिष्ठित करना
इसी सत्य को अध्यात्म योगी आचार्यश्री तुलसी ने अध्यात्म पदावली में दर्शाया है
जब जब बनता मन अमन, होती चित्त समाधि ।
नाम शेष होती स्वयं आधि व्याधि उपाधि ॥१७ इसी सत्य को महात्मा कबीर की पंक्तियों में खोजा जा सकता है
तू बंदा नहीं सचमुच खुद में खुदा है, बस हुआ एक नुक्ते से जुदा है। वह नुक्ता तू खूद ही है मुरीद,
मिटा दे खुदी (अहं) को, तू खूद ही खुदा है ॥ एक साधक के लिए श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ-ये साधनात्मक भूमिकाओं के विशेषण हैं किंतु निर्ग्रन्थ साधक की स्नातक भूमिका है। साधक को सिद्धि बंधन में नहीं अपितु निर्ग्रन्थ और निर्बन्ध होने में है। 'स्नातक' और 'केवली' होने के लिए इस भूमिका को साधना के द्वारा प्राप्त करना अनिवार्य है।
लोगस्स में जो वरं और उत्तम शब्द समाधि के साथ जोड़ा गया है वह अनिदान इस उत्तम कोटि की समाधि स्नातक' और 'केवली' की भूमिका पर पहुँचकर सिद्धि प्राप्ति का संकेत है। चित्त समाधि के दस भेदों में भी दसवां भेद 'सिद्धि' ही है। ध्यान के चार अंग ध्याता, ध्यान, ध्येय और समाधि में उत्तम स्थान समाधि को प्राप्त हैं। यह साधना एक सुदीर्घ यात्रा है।
पुरुष निम्न कारणों से स्वयं में विद्यमान गुणों का विनाश कर देता हैंक्रोध से प्रतिनिवेश-दूसरों की पूजा, प्रतिष्ठा सहन न करने से अकृतज्ञता से मिथ्याभिनिवेश-दुराग्रह से पुरुष निम्नोक्त सूत्रों को धारण कर अविद्यमान गुणों का दीपन करता हैगुण ग्रहण करने का स्वभाव होने से
पराये विचारों का अनुगमन करने से • प्रयोजन सिद्धि के लिए सामने वाले को अनुकूल बनाने की दृष्टि से • कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने के लिए
२४ / लोगस्स-एक साधना-२