Book Title: Khajuraho ka Jain Puratattva
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
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खजुराहो का जैन पुरातत्त्व निशुम्भ, मधुकैटभ, बलि, प्रह्लाद, रावण, जरासन्ध) सम्मिलित हैं।' ६३ शलाका पुरुषों की विस्तृत सूची पउमचरिय, महापुराण (जिनसेन एवं गुणभद्रकृत-आठवीं-नवीं शती ई०) एवं त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र (हेमचन्द्रकृत-१२ वीं शती का उत्तरार्ध) में मिलती है । जैन शिल्प में सभी ६३ शलाका पुरुषों का निरूपण नहीं हुआ। हमें २४ तीर्थंकरों के अतिरिक्त बलराम, कृष्ण, राम और भरत चक्रवर्ती की ही मूर्तियाँ मिलती हैं। बलराम और कृष्ण को नेमिनाथ की मतियों के परिकर में और साथ ही स्वतन्त्र रूप में भी दिखाया गया । पउमचरिय में राम और रावण तथा भरत चक्रवर्ती और उत्तराध्ययन सूत्र, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण एवं त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र में बलराम और कृष्ण से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख हैं ।
आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य ६३ शलाका पुरुषों के जीवन से सम्बन्धित कई श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहावली (भद्रेश्वर कृत-आठवीं शतीई०) और तिलोयपण्णत्ति (यतिवृषभ कृत-ल० आठवीं शती ई०), महापुराण एवं त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित्र मुख्य हैं। खजुराहो में ६३ शलाका पुरुषों में से केवल तीर्थंकरों तथा राम, कृष्ण और बलराम की ही मूर्तियाँ बनों ।
ल० छठी से १० वीं शती ई० के मध्य का काल धार्मिक इतिहास की दृष्टि से संक्रमण काल था । इस अवधि में अन्य धर्मों एवं कलाओं के समान जैन धर्म और कला में भी नवीन प्रवत्तियाँ एवं तान्त्रिक प्रभाव परिलक्षित होता है । तान्त्रिक प्रभाव के फलस्वरूप जैन देवताओं की संख्या तथा जैनों के धार्मिक कृत्यों में तीव्र गति से वृद्धि हुई। इस अवधि में विभिन्न प्रतिमालाक्षणिक ग्रन्थों की रचना के फलस्वरूप कला में शास्त्रीय परम्परा के निर्वाह की बाध्यता से कला में यान्त्रिकता का भाव भी प्रकट हुआ।
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों के अवगाहन से ज्ञात होता है कि पाँचवीं शती ई० के अन्त तक जैन देवकुल का मूलस्वरूप काफी कुछ निर्धारित हो चुका था। इन ग्रन्थों में तीर्थंकरों तथा अन्य शलाका पुरुषों एवं यक्ष-यक्षियों, विद्याओं, सरस्वती, लक्ष्मी, बलराम, कृष्ण, नैगमेषी, लोकपाल (इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम आदि) तथा लोकधर्म में प्रचलित देवों यथा, रुद्र, शिव, स्कन्द, वासुदेव, वैश्रमण या कुबेर, गन्धर्व, पितर, नाग, भूत, कीर्ति, अज्जापार्वती या आर्या के नामोल्लेख तथा प्रतिमालक्षण से सम्बन्धित कुछ प्रारम्भिक उल्लेख है । आगे की शताब्दियों (ल० छठी से १०वीं शती ई०) में इन देवताओं के प्रतिमालाक्षणिक स्वरूपों में और अधिक विकास हुआ। साथ ही कुछ नवीन देवताओं को भी जैन देवकुल में सम्मिलित किया गया। मध्ययुग में जैन देवकूल के
१. पउमचरिय ५.१४५-५७ । २. समवायांग सूत्र में यद्यपि २४ जिनों, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव एवं ९ प्रति
वासुदेव के नामोल्लेख्य हैं, पर उत्तम पुरुषों की संख्या केवल ५४ ही बतायी गयी है। सम्भवतः ९ प्रतिवासुदेवों को प्रारम्भ में उत्तम पुरुषों की सूची में मान्यता नहीं मिल
सकी थी। ३. शाह, यू० पी०, स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९५५, पृष्ठ १६ ।
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