Book Title: Khajuraho ka Jain Puratattva
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
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खजुराहो का जैन पुरातत्व
वाली हैं । कभी-कभी मूलनायक के सिर से चरणों तक सर्प की कुंडलियां फैली हुई दिखाई गई हैं। किसी भी उदाहरण में सर्प लांछन नहीं बना है। पार्श्वनाथ के साथ प्रभामण्डल के अतिरिक्त अन्य सभी प्रातिहार्य बने हैं। शीर्ष भाग के सर्पफणों के कारण ही प्रभामण्डल नहीं दिखाया गया है। तीन ध्यानस्थ मूर्तियों में मूलनायक सर्प की कुण्डलियों से बने आसन पर विराजमान हैं, जब कि सा० शां० जै० क० संग्रहालय (के० १००) की मूर्ति में पद्मासन के नीचे सर्प की कुण्डलियां उत्कीर्ण हैं। ६ कायोत्सर्ग मूर्तियों में से केवल एक में और पांच ध्यानस्थ मूर्तियों में से केवल तीन में ही सिंहासन छोरों पर यक्ष-यक्षी की आकृतियां बनी हैं । अन्य उदाहरणों में पार्श्वनाथ के समीप ही नागफणों के छत्र वाले चामरधारी धरणेन्द्र और छत्रधारिणी पद्मावती की स्थानक मूर्तियाँ उकेरी हैं । दो उदाहरणों (मंदिर १/१, जाडिन संग्रहालय-१६६८) में शीर्षभाग में त्रिछत्र के स्थान पर केवल पद्मावती द्वारा धारण किया हुआ छत्र ही दिखलाया गया है। इन दोनों ही मनोज्ञ उदाहरणों में चामरधारी धरणेन्द्र और छत्रधारिणी पद्मावती की मूर्तियाँ उकेरी हैं। मन्दिर १/१ की मूर्ति में परिकर में बाहुबली की आकृति भी उकेरी है। पाश्वों में धरणेन्द्र और पद्मावती के निरूपण के कारण कभी-कभी सामान्य चामरधारी सेवकों की आकृतियां नहीं बनाई गई हैं। सा० शां० जै० क० संग्रहालय (के० ९) की एक खड्गासन मूर्ति में पीठिका पर चार ग्रहों तथा चामर और पद्म से युक्त सेवकों की आकृतियाँ बनी हैं । सा० शा० ज० क० संग्रहालय की ही एक दूसरी कायोत्सर्ग मूर्ति में सिहासन के बायें छोर पर चतुर्भुज यक्ष आकृति उत्कीर्ण है जिसके दो अवशिष्ट करों में पद्म
और फल हैं। द्विभुजा यक्षी के सिर पर तीन सर्पफणों का छत्र है और उसकी एक भुजा में पद्म प्रदर्शित है।
___ कायोत्सर्ग मूर्तियों की अपेक्षा पार्श्वनाथ की ध्यानस्थ मूर्तियाँ कुछ बाद में बननी प्रारंभ हुई । कायोत्सर्ग मूर्ति पाश्र्वनाथ की तपस्या की स्थिति को प्रकट करती है जबकि ध्यानस्थ मूर्ति कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् की स्थिति को। सम्भवतः इसी कारण ध्यानस्थ मूर्तियों में सिंहासन छोरों पर यक्ष और यक्षी का अंकन अधिक लोकप्रिय था। ज्ञातव्य है कि शासनदेवताओं के रूप में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष-यक्षी युगल की नियुक्ति इन्द्र ने कैवल्य प्राप्ति के बाद ही की थी। पुरातात्त्विक संग्रहालय, खजुराहो की एक मूर्ति (क्रमांक १६१८, ११वीं शती ई०) में सर्पफणों के छत्रवाली यक्ष आकृति नमस्कारमुद्रा में है जबकि द्विभुजा यक्षी के बायें हाथ में फल प्रदर्शित है। सा० शा० ज० क० संग्रहालय की ११ वीं शती ई० की एक मति (के० १००) में सर्पफणों के छत्र वाले यक्ष-यक्षी क्रमशः द्विभुज और चतुर्भुज हैं। यक्ष के दो हाथों में फल और जलपात्र हैं जबकि चतुर्भुजा यक्षी के अवशिष्ट दक्षिण करों में पद्म और अभय-मुद्रा है। सा० शां० जै० क० संग्रहालय की १२ वीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति (के० ६८) में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज और पाँच सर्पफणों के छत्र वाले हैं। ध्यानमुद्रा में आसीन यक्षी के तीन हाथों में अभय-मुद्रा, सर्प और जलपात्र स्पष्ट हैं । दाहिने पार्श्व की ललितासीन यक्ष आकृति के हाथों में अभयमुद्रा, शक्ति, सर्प और जलपात्र हैं। परिकर में २० अन्य छोटी जिन मूर्तियाँ भी बनी हैं । यह मूर्ति प्रतिमालक्षण की दृष्टि से अत्यन्त विकसित है। इस प्रकार स्पष्ट है कि
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