Book Title: Khajuraho ka Jain Puratattva
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
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खजुराहो का जैन पुरातत्व मूर्तियाँ भी बनीं । खजुराहो की जिन मूर्तियाँ प्रतिमालक्षण की दृष्टि से पूर्ण विकसित कोटि की हैं । इनमें जिनों के साथ लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों, अष्ट-प्रातिहार्यों तथा परिकर में लघु जिन आकृतियों, नवग्रहों तथा कभी-कभी लक्ष्मी, सरस्वती और बाहुबली का भी अंकन हुआ है।' इस स्थल की प्राचीनतम जिन मूर्तियां पार्श्वनाथ मंदिर में हैं। जिन मूर्तियों के व्यक्तिशः निरूपण के पूर्व संक्षेप में उनकी सामान्य विशेषताओं की चर्चा भी प्रासंगिक है। श्रीवत्स चिह्न से युक्त जिन मूतियां या तो ध्यान-मुद्रा में या कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं । ध्यानस्थ मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से अधिक हैं । खजुराहों की जिन मूर्तियां लक्षणों की दृष्टि से पूरी तरह देवगढ़ एवं मथुरा जैसे समकालीन दिगम्बर केन्द्रों की जिन मूर्तियों के समान हैं ।
खजुराहों में तीर्थंकरों को अलंकृत आसनों पर निरूपित किया गया है जिसके नीचे सिंहासन है । सिंहासन के मध्य में उपासकों द्वारा पूजित या बिना उपासकों के धर्मचक्र उत्कीर्ण है। सिहासन छोरों पर यक्ष-यक्षी युगलों की मूर्तियां हैं। धर्मचक्र के समीप हो जिनों के लांछन बने है । मूलनायक के पाश्वों में मुकुट एवं हार आदि से शोभित सेवकों की दो स्थानक मूर्तियां भी हैं जिनके एक हाथ में चामर है और दूसरा कटि पर स्थित है । कभी-कभी दूसरे हाथ में पद्म भी प्रदर्शित है। मूलनायक के कंधों के ऊपर दोनों ओर गजों, उड्डीयमान मालाधरों एव मालाधर युगलों की मूर्तियां बनी हैं । गजों पर सामान्यतः घट लिये एक या दो आकृतियां बैठो हैं । जिनों के सिरों के पोछे ज्यामितीय, पुष्प एवं अन्य अलंकरणों से सज्जित प्रभामण्डल उत्कीर्ण है।
गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित जिनों की केश रचना उष्णीष के रूप में आबद्ध है । ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ के साथ क्रमशः लटकती जटाओं एवं पांच तथा सात सर्पफणों के छत्रों का प्रदर्शन हुआ है। मूलनायक के सिर के ऊपर त्रिछत्र और दुन्दुभि बजाती अधलेटी आकृति भी बनी है। परिकर के ऊपरी भाग में कभी-कभी कुछ अन्य मालाधर गन्धों एवं वाद्यवादन करती आकृतियों का भी निरूपण हुआ है । कुछ उदाहरणों में सिंहासन पर या परिकर में द्विभुज नवग्रहों की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । परिकर में लघु जिन मूर्तियों का अंकन विशेष लोकप्रिय था। कभी-कभी परिकर की २३ छोटी जिन मूर्तियां मूलनायक के साथ मिलकर जिन चौबीसी का रूप ग्रहण कर लेती है। जिन मूर्तियों के छोरों पर एक के ऊपर एक क्रम से गज, व्याल, मकर एवं योद्धा की आकृतियां बनी हैं ।
जिन मूर्तियों में यक्ष एवं यक्षो ( शासन देवताओं ) की मूर्तियां क्रमशः सिंहासन के दक्षिण और वाम छोरों पर बनी हैं। यक्ष-यक्षी युगल समान्यतः द्विभुज या चतुर्भुज तथा
१. स्थापयेदहंता छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णकम् ।
पीठंभामण्डलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुन्दुभिम् ।। स्थिरेतरार्चयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पावें यक्षं यक्षी च वामके ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार १७६-७७, हरिवंशपुराग ३.३१-३८; प्रतिष्ठासारसंग्रह ५८२-८३ ।
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