Book Title: Khajuraho ka Jain Puratattva
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
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खजुराहो का जैन पुरातत्व
आयागपटों पर सर्वप्रथम जिनों का ध्यान-मुद्रा में अंकन प्रारम्भ हुआ। ऐसे एक उदाहरण में ध्यानस्थ तीर्थंकर के सिर पर सात सर्पफणों का छत्र भी बना है जो पार्श्वनाथ का लक्षण है । इस प्रकार स्पष्ट है कि जिन मूर्तियों में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ का ही वैशिष्ट्य स्पष्ट हुआ । पावंनाथ के बाद ऋषभनाथ के लक्षण नियत हुए । मथुरा में पहली शती ई० में स्कंधों पर लटकती हुई जटाओं वाली ऋषभनाथ की कई मूर्तियाँ बनीं।
- जैन प्रतिमाविज्ञान, विशेषतः जिन प्रतिमाओं के विकास की दृष्टि से कुषाण काल का विशेष महत्व है। पहली-दूसरी शती ई० के मध्य मथुरा में जिनों की स्वतन्त्र मूर्तियों के साथ ही उनके जीवन से सम्बन्धित दृश्यांकन भी उत्कीर्ण हुए। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ के अतिरिक्त मथुरा में संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ एवं महावीर की भी मूर्तियाँ बनीं । नेमिनाथ की मूर्तियों में बलराम एवं कृष्ण का अंकन हुआ। ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य जिनों को केवल पीठिका लेखों के आधार पर ही पहचाना गया है। मथुरा के अतिरिक्त चौसा से भी ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ की कुषाण कालीन मूर्तियां मिली हैं । कुषाणकाल में मथुरा में ही सर्वप्रथम जिन मूर्तियों में प्रातिहार्यों, धर्मचक्र, मांगलिक चिह्नों एवं उपासकों आदि का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ। मथुरा में आठ प्रातिहार्यों में से केवल सात (सिंहासन, प्रभामण्डल, चामरधर सेवक, उड्डीमान मालाधर, छत्र, चैत्यवृक्ष एवं दिव्य ध्वनि) ही प्रदर्शित हए । जिनों की हथेलियों, तलुओं एवं उँगलियों पर धर्मचक्र, श्रीवत्स और विरल जैसे मांगलिक चिह्न भी उत्कीर्ण हैं । कुछ उदाहरणों में पार्श्वनाथ के सर्पफणों पर भी ये चिह्न बने हैं। कुषाण काल में जिन चौमुखी (प्रतिमा सर्वतोभद्रिका) का निर्माण प्रारम्भ हुआ जिनमें चारों ओर चार जिनों की कायोत्सर्ग मूर्तियाँ बनीं। चार जिनों में से केवल ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ की ही पहचान संभव है । कुषाण काल में ही ऋषभनाथ के जीवन से सम्बन्धित नीलाना के नृत्य तथा महावीर के गर्भापहरण के दृश्य भी बने ।
जिन प्रतिमालक्षण की दृष्टि से गुप्तकाल का भी विशेष महत्व है । सर्वप्रथम गुप्तकालीन ग्रन्थ बृहत्संहिता में ही जिन मूर्तियों के सामान्य लक्षण निरूपित हुए।' इस ग्रन्थ में जिनों के श्रीवत्स चिह्न से युक्त, निर्वस्त्र, अजानुलम्बबाहु और तरुण स्वरूप में निरूपण का उल्लेख है । जिन मूर्तियों में पारंपरिक लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रातिहार्यों का प्रदर्शन गुप्तकाल में ही प्रारम्भ हुआ। लांछनों से युक्त प्राचीनतम जिन मूर्तियाँ नेमिनाथ (शंख) और महावीर (सिंह) की हैं। ये मूर्तियाँ क्रमशः राजगिर (बिहार) और वाराणसी (भारत कलाभवन, वाराणसी, क्रमांक १६१) से मिली हैं। ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की मूर्तियों में पूर्ववत् लटकती जटाओं
और सात सर्पफणों के छत्र देखे जा सकते है। यक्ष-यक्षी युगल से युक्त पहली जिन मति (ल० छठी शती ई०) श्वेतांबर स्थल अकोटा (बड़ौदा, गुजरात) से मिली है । यह मूर्ति ऋषभनाथ की है और इसमें यक्ष-यक्षी के रूप में सर्वानुभूति (या कुबेर) और अंबिका की आकृतियाँ बनी
१. आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च ।
दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽहतां देवः ॥ बृहत्संहिता ५८.४५
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