Book Title: Khajuraho ka Jain Puratattva
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
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अध्याय-४ तीर्थंकर या जिन मूतियाँ
सामान्य विकास
जैन देवकुल में तीर्थंकरों या जिनों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। हेमचन्द्र ने इन्हें देवाधिदेव भी कहा है। कला में सर्वप्रथम जिनों की ही मूर्तियाँ बनीं। प्राचीनतम जिन मूर्ति ल० तीसरी शती ई० पू० की है। यह मूर्ति लोहानीपुर (पटना, बिहार) से मिली है और सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है । जैन परंपरा में २४ तीर्थंकरों के अलग-अलग लांछन एवं यक्ष-यक्षी युगल बताए गए हैं। लांछनों और यक्ष-यक्षियों तथा पीठिका लेखों के आधार पर ही जिन मूर्तियों को पहचाना गया है। गुजरात और राजस्थान में लांछनों के स्थान पर पीठिका लेखों में जिनों के नामोल्लेख की परंपरा अधिक लोकप्रिय थी। कला में स्वतन्त्र जिन मूर्तियों के साथ ही उनकी द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, चौमुखी और चौबीसी मूर्तियाँ भी बनीं। जिन मूर्तियाँ केवल दो ही मुद्राओं में बनीं, या तो उन्हें ध्यान-मुद्रा में दोनों पैर मोड़कर और दोनों हाथों की खुली हथेलियों को गोद में रखे हुए आसीन या फिर दोनों हाथ लंबवत् नीचे लटकाये कायोत्सर्ग (या खड्गासन) में खड़ा निरूपित किया गया ।
लोहानीपुर की प्राचीनतम मूर्ति में तीर्थंकर निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं ।' यहीं से शुंग काल या कुछ बाद की एक अन्य मूर्ति भी मिली है। ल० पहली शती ई० पू० या कुछ बाद की दो अन्य कायोत्सर्ग मूर्तियाँ प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई और पटना संग्रहालय में हैं । पटना संग्रहालय की मूर्ति चौसा (भोजपुर, बिहार) से मिली है ।२ दोनों ही उदाहरणों में पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग में निर्वस्त्र खड़े हैं और उनके सिर पर पाँच या सात सर्पफणों के छत्र हैं । इन प्रारम्भिक जिन मूर्तियों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न नहीं है । जिनों के वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न का अंकन सर्वप्रथम पहली शती ई० पू० में मथुरा में प्रारंभ हुआ और उसके बाद की सभी जिन मूर्तियों में यह अभिन्न लक्षण के रूप में प्रदर्शित हुआ। वस्तुतः श्रीवत्स चिह्न जिन मूर्तियों की पहचान का मुख्य आधार है। ल. पहली शती ई० पू० में ही मथुरा के
१. जायसवाल, के० पी०, “जैन इमेज ऑफ मौर्य पीरियड", जर्नल बिहार, उड़ीसा रिसर्च ___ सोसाइटी, खं० २३, भाग-१, १९३७, पृ० १३०-३२ । २. शाह, यू० पी०, स्टडीज इन जैन आर्ट, पृ० ८९, प्रसाद, एच० के०, "जैन ब्रोन्जेज
इन दि पटना म्यूजिम', महावीर जैन विद्यालय गोल्डेन जुबिली वाल्यूम, बंबई, १९६८,
पृ० २७५-८० । ३. दक्षिण भारत की बादामी, अयहोल, एलोरा एवं कुछ अन्य स्थलों से प्राप्त जिन मूर्तियाँ
इसकी अपवाद हैं।
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