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(३) फिर भी अपने वर्तमान रूप में शैली में व्यक्ति-तत्व का जितना महत्त्व है, उतना भारतीय रीति में कभी नही रहा । विधान रूप में उसमें वस्तु-तत्त्व का ही प्राधान्य रहा है । वामन की दृष्टि तो वस्तु-परक है ही श्रानन्दवर्धन जैसे सर्वमान्य आलोचकों ने भी- जिन्होंने व्यक्ति की सता को उचित स्वीकृति दी है, रीति के स्वरूप में व्यक्ति-तत्व का प्रभाव अत्यन्त संयत मात्रा में ही माना है ।
(४) इस प्रकार रीति और शैली के वर्तमान रूप में व्यक्ति तत्त्व की मात्रा का अन्तर अवश्य हो गया है। कम से कम 'शैली ही व्यक्ति है' की भाँति भारतीय रीति व्यक्ति से एकाकार नहीं हो पाई। इस सम्बन्ध में कुन्तक जैसे आचार्य की एक आध उक्ति को अपवाद ही मानना चाहिये ।
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