Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 193
________________ ३०६] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र १०-११ ते मे शब्दौ निपातेषु ॥ ५,२,१० ॥ त्वया मयेत्यस्मिन्नर्थे ते मे शब्दौ निपातेषु द्रष्टव्यौ । यथा श्रुतं ते वचनं तस्य । वेदानधीत इति नाधिगतं पुरा मे ॥१०॥ तिरस्कृत इति परिभूतेऽन्तध्युपचारात् ॥ ५,२,११॥ वाली दन्तपक्ति के बहाने चन्द्रमा की किरणो से [ और भी अधिक ] श्वेतिमा को प्राप्त कराते हुए कृष्ण जी शुभ्रस्मित युक्त वाणी बोले। यहा 'लम्भयन्' यह ण्यन्तावस्था की क्रिया है उसका अण्यन्तावस्था का कर्ता 'सितिमा' है । परन्तु यहा गत्यर्थ की प्रधानता न होने से 'गतिबुद्धि' इत्यादि सूत्र से 'सितिमा' की कर्म सज्ञा नही हुई। तब 'कर्तृकरणयोस्तृतीया इस सूत्र से उसमे तृतीया होकर 'सितिम्ना लम्भयन्' यह प्रयोग बना है ॥ ९ ॥ __ युष्मद्-अस्मद् शब्द के षष्ठी और चतुर्थी विभक्ति के एकवचन मे 'तुभ्य', 'ते' और 'तव', 'ते' यह दो प्रकार के रूप बनते, है । परन्तु इन दो विभक्तियो के अतिरिक्त कही-कही तृतीयादि विभक्ति मे भी 'ते' 'मे' पदो का प्रयोग देखा जाता है । जैसे 'श्रुत ते वचन तस्य' यहाँ 'त्वया के स्थान पर 'ते' प्रयुक्त किया गया है । वेदानधीते इति नाधिगत पुरा में यहाँ 'मे नाधिगत' का अर्थ 'मया नाधिगतम्' है । इस प्रकार इन उदाहरणो मे तृतीया विभक्ति में 'ते', 'मैं' शब्दो का प्रयोग कैसे हुआ है यह शङ्का होती है। उसका समाधान ग्रन्थकार यह करते है कि 'ते', 'मे' शब्दो का निपातो मे पाठ मान कर यहा प्रयोग किया गया है। इसी बात को अगले सूत्र मे कहते है 'ते', 'मे' शब्द निपातो में [पठित ] है। 'त्वया' 'मया' इस [तृतीयान्त के ] अर्थ में ते[त्वया ], 'मे' [ मया ] शब्द निपातो में देखने चाहिएं । जैसे-- । तुमने उसका वचन सुना। [वह ] वेद पढता है यह बात मैने पहले नही जानी । [इन दोनो उदाहरणो मे निपात पठित 'ते', 'मे' शब्दो का प्रयोग समझना चाहिए] ॥१०॥ 'तिरस्कृत' यह [ शब्द ] परिभूत अपमानित] अर्थ में मन्तर्धान [छिप जाने ] के सादृश्य से [ गौणीवृत्ति लक्षणा से प्रयुक्त होता है।

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