Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 194
________________ सूत्र ११] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [३०७ तिरस्कृत इति शब्दः परिभूते दृश्यते । 'राज्ञा तिरस्कृत' इति । स च न प्राप्नोति । तिरः शब्दस्य हि "तिरोऽन्तधौं" इत्यन्तधौं गतिसंबा । तस्यां च सत्यां "तिरसोऽन्यतरस्याम्" इति सकारः । तत्कथं तिरस्कृत इति परिभूते। आह, अन्तध्यु पचारात्, इति । परिभूतो ह्यन्तर्हिनवद् भवति । मुख्यस्तु प्रयोगो यथा लावण्यप्रसरतिरस्कृताङ्गलेखाम् ॥ ११ ॥ "तिरस्कृतः' यह शब्द अपमानित इस अर्थ में [प्रयुक्त हुआ ] देखा जाता है। जैसे ] 'राजा से तिरस्कृत [राजा से अपमानित]। वह[परिभूत या अपमानित अर्थ में तिरस्कृत शब्द का प्रयोग व्याकरण के नियमानुसार ] प्राप्त नहीं होता है । तिरः' शब्द को अन्तर्धान [अर्थ ] में "तिरोऽन्तौसूत्र से गति सज्ञा होती है । और उस [ गतिसंज्ञा ] के हो जाने पर तिरसोऽन्यतरस्याम्' इस सूत्र से [विसर्ग को क के परे रहते ] सकार [ होकर 'तिरस्कृत' यह रूप] होता है । तब परिभूत अर्थ में [ गतिसज्ञा न होने से ] तिरस्कृत' यह [प्रयोग] कैसे होगा। [इस शङ्का के होने पर उसके समाधान के लिए ] कहते है । अन्तर्धान का [ अपमानित में ] सादृश्य होने से । अपमानित [व्यक्ति ] अन्तहित के समान [अलक्ष्य, उपेक्षित ] हो जाता है। [इसलिए सादृश्य लक्षणा से परिभूत के लिए भी तिरस्कृत शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। इस तिरस्कृत शब्द का ] मुख्य प्रयोग तो [ इस प्रकार के उदाहरणो में समझना चाहिए] जैसे सौन्दर्य के प्रसार से जिसकी देह रेखाएं छिप गई है [ ऐसी सुन्दरी को] ॥ ११॥ निपेष के अर्थ मे नन् का प्रयोग होता है। इसका "नन्' इम मूत्र से सुवन्त के माथ समाम होता है। उसके बाद नलोपो नत्र ' इम सूत्र से उत्तरपद परे रहते नन् के न का लोप हो जाता है। उसके बाद यदि 'द्वितीय' आदि उत्तरपद परे है तव अद्वितीय स्प बन जाता है। परन्तु जहाँ अजादि 'एक' आदि 1-3 अष्टाध्यायी १, ४, ७१ । २-१ अप्टाध्यायी ८, ३, ४२। ५ अप्टाघ्यायो २, २, । ६ अष्टाध्यायी ६,३.७।

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