Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 196
________________ सूत्र १३] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय [३०९ मधुपिपासुप्रभृतीनांसमासो गमिगाम्यादिषु पाठात् ॥५,२,१३।। मधुपिपासुमधुव्रतसेवितं मुकुलजालमजृम्भत वीरुधाम् । इत्यादिषु मधुपिपासुप्रभृतीनां समासो गमिगाम्यादिपु पिपासुप्रभृतीनां पाठान् । श्रितादिषु गमिगाम्यादीनां द्वितीयासमासलक्षणं दर्शयति ॥१३॥ 'सुप्सुपा' समास का अभिप्राय यह है कि महाभाष्यकार ने 'सह सुपा' सूत्र का योग-विभाग कर जो 'सुवन्त सुवन्तेन सह समस्यते' यह नियम बनाया है उसके अनुसार 'न' और 'एक' पद का समास होकर 'नक' पद सिद्ध किया जा सकता है ॥ १२ ॥ समास के प्रसग मे 'मधुपिपासु' सदृश समासो का विषय भी सदिग्ध हो सकता है इसलिए उसका स्पष्टीकरण करने के लिए अगला सूत्र लिखते है। 'मधुपिपासु' मे मधु को पीने की इच्छा वाला इस प्रकार का द्वितीण समास अथवा मधु का पिपासु इस प्रकार का षष्ठी तत्पुरुप समाम हो सकता है। परन्तु द्वितीया समास के विधायक २'द्वितीयाश्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्न' इस सूत्र मे पिपासु आदि पदो का पाठ न होने से द्वितीया तत्पुरुष नहीं हो सकता है । और 'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्' इस सूत्र से 'पिपामु' 'दिदृक्षु आदि 'उ' प्रत्ययान्तो के, योग में पप्ठी विभक्ति का ही निपेध होने मे पछीतत्पुरुप समास भी नही हो मकता है। तव 'मधुपिपासु' आदि प्रयोग कैने वन सकते है। यह शङ्का होती है । उसका समाधान यह करते है कि इस प्रकार के प्रयोगो मे 'गमिगाम्यादीनामुपसख्यानम्' इस वार्तिक के अनुसार द्वितीया तत्पुरुप समास हो सकता है। इसी बात को अगले सूत्र में कहते है। मधुपिपासु इत्यादि [ पदो] का[ द्वितीया तत्पुरुष ] समास [ 'गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानम्' इस वार्तिक के अन्तर्गत ] गमिगाम्यादिको में पाठ होने से [ हो जाता है। मघुपिपासु भूमरकुल से सेवित लताओ का पुष्पसमूह विकसित हुआ। इत्यादि [ प्रयोगो ] में 'मधुपिपासु' इत्यादि [ शब्दो] का ममास 'गमिगाम्या १ अप्टाध्यायी २, १, ४। २ अष्टाध्यायी २, १, २४ । ३ अप्टाध्यायी २, ३, ६९ ।

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