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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र १७-१८ अप्रसिद्धासभ्यार्थान्तरं पदमप्रसिद्धासभ्यं तद् गुप्तम् । यथा 'सम्वाधः' इति पदम् । तद्धि सङ्कटाणे प्रसिद्ध, न गुह्यार्थमिति ॥ १६ ॥
__ लाक्षणिकासभ्य लक्षितम् । २, १, १७ ।
तदेवासभ्यार्थान्तरं लाक्षणिकेनासभ्येनार्थेनान्वितं पदं लक्षितम् । यथा 'जन्मभूमिः' इति । तद्धि लक्षणया गुह्यार्थ न स्वशक्त्येति ॥ १७॥ ।
लोकसवीत सवृतम् । २, १, १८ । लोकेन संवीत लोकसंवीतम् । यत् तत् संवृतम् । यथा 'सुभगा', 'भगिनी', 'उपस्थानम्', 'अभिप्रेतम', 'कुमारी', 'दोहदम्' इति । अत्र हि श्लोक:
[जिसका ] दूसरा [अर्थात् ] असभ्य अर्थ [ हो पर ] प्रसिद्ध न हो वह अप्रसिद्धासभ्य पद 'गुप्त' [कहलाता ] है । जैसे 'सम्बाघः' यह पद । ['वेशेऽपि गन्धः सम्बाघो गुह्यसङ्कटयोर्द्वयोः' इस कोश के अनुसार 'सम्वाध' पद गुह्येन्द्रिय उपस्थ तथा सङ्कट दोनो का वाचक है । परन्तु इनमें से ] वह [सम्बाघ पद ] सङ्कट अर्थ में प्रसिद्ध है गुह्य [ उपस्थेन्द्रिय ] अर्थ में [प्रसिद्ध] नहीं। [ इसलिए अश्लील अर्थ के गुप्त अर्थात् अप्रसिद्ध होने से इस पद का प्रयोग अश्लीलतायुक्त नहीं है। ] ॥१६॥
[असभ्य अर्थान्तर वाला पद] असभ्य अर्थ के लाक्षणिक [ लक्षणागम्य] होने पर लक्षित [असभ्य अर्थ ] होता है [ और वह अश्लील नहीं कहलाता है।
वही असभ्यार्थान्तर वाला पद, यदि लाक्षणिक असभ्यार्थ से युक्त हो तो लक्षित [ लक्षितासभ्यार्थ ] कहलाता है [और वह अश्लील नहीं होता है ] । जैसे 'जन्मभूमि यह [पद]। वह लक्षणा से गुह्य [स्त्री की योनि या उपस्थ ] का बोधक है अपनी [अभिधा ] शक्ति से नही। [ इसलिए वह अश्लील नहीं है ]॥ १७ ॥
लोक [व्यवहार ] से [असभ्यार्थ ] दवा हुआ [ होने पर ] सवृत [प्रसभ्या कहलाता है [और वह भी अश्लील नही होता है ।
लोक [ व्यवहार ] से [ संवीत ] दवा हुआ 'लोफ सवीत' जो पद होता है वह सवृत [पद ] है [वह अश्लीलता दोष युक्त नहीं होता] । जैसे 'सुभगा', 'भगिनी', [-न दोनो पदो में 'भग' शब्द रत्री के गहाङ्ग अर्थात् योनि का