Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 152
________________ २१४] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र १७ ननु चार्थानां रश्मितुल्यत्वे सति काव्यस्य शशितुल्यत्वं भविष्यति । नैवम् । काव्यस्य शशितुल्यत्वे सिद्धेऽर्थानां रश्मितुल्यत्वं सिद्धयति । न ह्यानां रश्मीनां च कश्चित् सादृश्यहेतुः प्रतीतो गुणोऽस्ति । तदेवमितरेतराश्रयदोषो दुरुत्तर इति ।। १६ ।। असादृश्यहता ह्य पमा तन्निष्ठाश्च कवयः । ४, २, १७ । असादृश्येन हता असाहश्यहता उपमा। तन्निष्ठा, उपमानिष्ठाश्च कवयः इति ॥ १७॥ [प्रश्न ] अर्थ में रश्मितुल्यता मान लेने पर [उस प्रतीत सादृश्य के प्राधार पर ] काव्य में शशितुल्यता हो जावेगी [अतः दोष नहीं रहेगा। [उत्तर] आपका यह कहना ठीक नहीं है [ क्योंकि अर्थ में रश्मितुल्यता-रश्मि-सादृश्य भी तो अप्रतीत है। उस अर्थ के रश्मि के साथ सादृश्य का उपादान करने के लिए आप यह कहोगे कि ] काव्य की शशितुल्यता सिद्ध हो जाने पर अर्थों की रश्मितुल्यता सिद्ध हो जावेगी [ इस प्रकार तो अन्योन्याश्रय दोष होगा। काव्य में शशितुल्यता होने पर अर्थों की रश्मितुल्यता होगी और अर्थो की रश्मितुल्यता सिद्ध होने पर काव्य की शशितुल्यता होगी। यह अन्योन्याश्रय दोष हो जावेगा। क्योकि अर्थो और रश्मियो के सादृश्य का कोई हेतु रूप गुण प्रतीत नहीं होता है । इसलिए [ जिस शैली से प्राप काव्य का शशि के साथ सादृश्य का उपपादन करना चाहते है उसमें ] अन्योन्याश्रय दोष का समाधान नही हो सकता है। [अतएव इस उदाहरण में प्रसादृश्य रूप उपमा दोष है।] ॥१६॥ ___ उपमा अलङ्कार का जीवन ही सादृश्य पर अवलम्बित है । सादृश्य ही उपमा का सार है। इसलिए यदि उपमा में भी सादृश्य का यथोचित निर्वाह न किया जाय तो सादृव्यविहीन उपमा ही कहा रहती है। इस प्रकार असादृश्यमलक उपमा भी नही बनती और उसका अवलम्बन करने वाले कवि का भी गौरव नष्ट होता है । इस वात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में दिखलाते है --- सादृश्य के प्रभाव में उपमा नष्ट हो जाती है और उस [ सादृश्यविहीन उपमा ] में लगे हुए [ उस प्रकार को सादृश्यविहीन उपमा का प्रयोग

Loading...

Page Navigation
1 ... 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220