Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ सूत्र २७] चतुर्याधिकरणे तृतीयोऽध्यायः [२७१ उपमानस्याक्षेपतः प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थः । • यथाऐन्द्रं धनुः पाण्डुपयोधरेण शरद् दधाना नखक्षतामम् । प्रसादयन्ती सकलङ्कमिन्दु तापं रवेरम्यधिकञ्चकार ॥ अत्र शरद् वेश्येव, इन्दु नायकमिव, रखेः प्रतिनायकस्येव इत्युपमानानि गम्यन्ते इति ॥ २७ ॥ यदि उस [ नायिका ] का सौम्य और सुन्दर मुख विद्यमान है तो फिर [ उसी के समान कार्य करने वाले ] पूर्णिमा के चन्द्रमा से क्या लाभ । और यदि सौन्दर्य के निधानभूत [ उस नायिका के ] नेत्र विद्यमान है तो [ उसी के समान ] नील कमलो से क्या लाभ । और वहां [ उस मुख में ] यदि अधर विद्यमान है तो फिर [ उसके सदृश ही ] कोमल कान्ति वाले किसलयो से क्या प्रयोजन । [ इन सब की रचना बिल्कुल व्यर्थ है। लेकिन फिर भी विधाता ने इनको रचा है। ] खेद है कि विधाता को पुनरुक्त [ व्यर्थ ] वस्तुओ के बनाने का [ ऐसा ] अपूर्व प्राग्रह [ शौक ] है। यहा तुल्यकार्यकारी चन्द्र, नीलोत्पल, किसलय आदि उपमानो के आनर्थक्य का प्रतिपादन किया गया है। अतएव यहा आक्षेपालकार है । उपमान की प्राक्षेप से [अर्थतः] प्रतिपत्ति [ज्ञान] भी [प्राक्षेप अलंकार कहा जा सकता है यह इस ] सूत्र का अर्थ [ हो सकता है। जैसे [निम्न श्लोक में] [पाण्डु ] शुभ्रवणं के मेघो के ऊपर [ दूसरे पक्ष में स्तनो के ऊपर ] ताजे नखक्षतो के समान इन्द्र धनुष को धारण किए हुए [शरद ऋतु, दूसरे पक्ष में नायिका ] कलंकी [ कलंकयुक्त, दूसरे पक्ष में पराङ्गनोपभोग रूप कलंक से युक्त ] चन्द्र को, निर्मल करती [ दूसरे पक्ष में मनाती] हुई शरद् [ऋतु, दूसरे पक्ष में नायिका ] ने [नायक रूप] सूर्य के ताप [ दूसरे पक्ष में धूप की तीव्रता] को और अधिक कर दिया। ___इस में शरद् वेश्या के समान, इन्दु नायक के समान और सूर्य प्रतिनायक के समान यह उपमान [ प्राक्षेप से ] प्रतीत होते है । [ इसलिए यहां दूसरे प्रकार का प्राक्षेप अलंकार है। नवीन आचार्यों ने दूसरे प्रकार के इस 'आक्षेप' को 'समामोक्ति अलकार माना है, आक्षेप नही । समासोक्ति का लक्षण विश्वनाथ ने

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220