Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 185
________________ २९८ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [ सूत्र २-३ मिलि क्लब-क्षपि प्रभृतीनां धातुत्वं, धातुगणस्यासमाप्तेः । ५, १, २ । मिलति, विक्लबति, क्षपयति इत्यादय. प्रयोगाः । तत्र मिलिक्लब -पि प्रभृतीनां कथं धातुत्वम् । गणपाठाद्, गणपठितानामेव धातुसंज्ञाविधानात् । तत्राह । धातुगणस्यासमाप्तेः । वर्धते धातुगण इति हि शब्दविद श्रचक्षते । तेनैषां गणपाठोऽनुमतः, शिष्टप्रयोगादिति ॥ २ ॥ वलेरात्मनेपदमनित्यं ज्ञापकात् । ५, २, ३ वलेरनुदात्तेत्वादात्मनेपदं यत्, तदनित्यं दृश्यते, 'लज्जालोलं वलन्ती' इत्यादिप्रयोगेषु । तत्कथमित्याह ज्ञापकात् ॥ ३ ॥ ''मिलि', 'क्लब' और 'क्षपि' आदि [ धातुपाठ में अपठित ] का धातुत्व है । धातुगण [ धातुपाठ मात्र में समस्त धातुओं ] के समाप्त न होने से [ धातुपाठ के अतिरिक्त धातु भी होते हैं ] 'मिलति', 'विक्लबति', 'क्षपयति' इत्यादि प्रयोग पाए जाते हैं । उनमें [ उनके मूलभूत ] मिलि, क्लब, क्षपि श्रादि का धातुत्व [ धातुपाठ में पठित न होने के कारण ] कैसे होगा ? गणपाठ से, [ भ्वादि ] गण पठितो की ही धातुसंज्ञा का विधान [ "भूवादयो धातवः' इस सूत्र में ] होने से । [ गणो में अपठित मिलि आदि का धातृत्व कैसे होगा, यह प्रश्न हुआ ] । इसका उत्तर देते है । धातुगण के [ उसी परिगणित धातुपाठ के भीतर ] समाप्त न होने से [ धातुपाठ के बाहर भी बहुत धातु शिष्ट प्रयोग से मानी जा सकती है । इसीलिए ] धातुगण बढ़ सकता है । यह शब्दशास्त्रज्ञ [ व्याकरण के प्राचार्य ] कहते है । इसलिए इन [ मिलि, क्लब आदि ] का गणपाठ [ धातुत्व ] शिष्ट प्रयोग से श्रभिमत हैं । [ 'प्रभृति' -ग्रहण से 'बीज' 'आन्दोल' आदि का ग्रहण भी करना चाहिए । 'शिष्ट' प्रयोग [ शब्द ] से प्रतिप्रसङ्ग का वारण किया है ॥ २ ॥ 'बलि' [ धातु ] का [ अनुदात्तेत् निमित्तक ] श्रात्मनेपद [ चक्षिड् धातु में इकार तथा डकार दो अनुबन्ध करने रूप ] ज्ञापक [बल ] से अनित्य है । [ इसलिए परस्मैपद में भी उसका प्रयोग हो सकता है ] । Eff [ धातु ] के अनुदात्त [ इकार के ] इत् होने से [ "अनुवातति ' अप्टाध्यायी १, ३, १ ॥ २ अष्टाध्यायी १, ३, १२

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