Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 189
________________ काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तों मार्गेरात्मनेपदमलक्ष्म । ५, २, ७ । चुरादौ 'मार्ग अन्वेषणे' इति पठ्यते । 'आ धृपाद्वा' इति विकल्पितणिच्कः । तस्माद् यदात्मनेपदं दृश्यते 'मार्गन्तां देहभारमिति' तदलक्ष्म अलक्षणम् । परस्मैपदित्वान्मार्गेः । तथा च शिष्टप्रयोगः 'करकिसलयं धूत्वा धूत्वा विमार्गति वाससी' ॥ ७ ॥ ३०२] [ सूत्र ७-८ लोलमानादयश्चानशि । ५,२,८ । ललमानो वल्लमान इत्यादयश्चानशि द्रष्टव्याः । शानचस्त्वभावः । परस्मैपदित्वाद् धातूनामिति ॥ ८ ॥ धातु का तो कर्ता में भी 'खिद्यते' प्रयोग वन सकता है । ग्रन्थकार का यह अभिप्राय मान कर ही प्रकृत ग्रन्थ की संगति लगानी चाहिए ॥ ६ ॥ 'मार्ग' थातु का श्रात्मनेपद शुद्ध है । 'चुरादिगण' में 'मार्ग' श्रन्वेषणे' यह [ धातु ] पढ़ा जाता है । 'आधृषाद् वा' इस नियम से उससे [ चुरादि सुलभ ] णिच् विकल्प से कहा गया है । उस [ 'मार्ग' धातु ] से जो आत्मनेपद देखा है जैसे 'मार्गन्तां देहभारम्' इस प्रयोग में [ मार्ग धातु से लोट् लकार में 'मार्गन्ताम् ' प्रयोग बनता है ]। वह [ श्रलक्ष्म ललणहीन - दूषित ]अशुद्ध है । 'मार्ग' धातु के परस्मैपदी होने से । इसीलिए [ 'मार्ग' धातु का ] शिष्ट प्रयोग [ परस्मैपद में ही किया जाता है ] जैसे— [ सम्भोग के अनन्तर नग्ना नायिका ] कर किसलय को हिला हिला कर [ नीचे पहनने और ऊपर प्रोढ़ने के ] दोनों वस्त्रों को [ पलंग पर इधर-उधर ] खोजती है । यहा 'विमार्गति' यह 'मार्ग' वातु का परस्मैपद में प्रयोग किया गया हैं । यही गिष्टानुमोदित प्रयोग होने से शुद्ध प्रयोग है । और 'मार्गन्ताम्' आदि आत्मनेपद में बनाए हुए 'मार्ग' बातु के प्रयोग अशुद्ध है ॥ ७ ॥ लोलमान श्रादि [ श्रात्मनेपदी सदृश प्रयोग ] चानशू [ प्रत्यय ] में [ बने समझने चाहिएं, आत्मनेपदी धातुश्री से विहित शानच् प्रत्यय से बने हुए नहीं समझने चाहिएं ] 1 नोलमानः बेल्लमानः इत्यादि [ श्रात्मनेपदी धातुग्रो के सदृश दिखलाई

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