Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 177
________________ २७८] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ३६ सञ्चय रूप अन्धकार को हटा कर मुदे हुए कमल-नयनो वाले रजनी [ नायिका ] के मुख को चन्द्रमा चुम्बन-सा कर रहा है। यहा 'चुम्बतीव रजनीमुख शशी' यह उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । यह उपमा और रूपक से अनुप्राणित हो रहा है । इसलिए उत्प्रेक्षा हेतु या उत्प्रेक्षावयव रूप ससृष्टि अलङ्कार का उदाहरण है। . भामह ने 'उपमारूपक' तथा उत्प्रेक्षावयव' अलङ्कारो का निरूपण तो किया है, परन्तु वामन के समान उन्हे ससृष्टि का भेद नही माना है । ससृष्टि को उन दोनो से भिन्न अलग ही अलङ्कार माना है और तीनो अलङ्कारो का स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग इस प्रकार निरूपण किया है ' उपमानेन तद्भावमुपमेयस्य 'साधयत् । या वदन्त्युपमामेतदुपमारूपक यथा ॥ समग्रगगनायाममानदण्डो रथागिनः । पादो जयति सिद्धस्त्रीमुखेन्दुनवदर्पण ॥ २ श्लिष्टस्यार्थेन च सयुक्त किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वित । रूपकार्थेन च पुनरुत्प्रेक्षावयवो यथा ॥ तुल्योदयावसानत्वाद् गतेऽस्त प्रति भास्वति । वासाय वासर क्लान्तो विशतीव तमीगुहाम् ।। 3 वरा विभूपा ससृष्टिर्बह्वलङ्कारयोगत । रचिता रत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा ॥ गाम्भीर्यलाघववतोयुवयो प्राज्यरलयो. । सुखसेव्यो जनाना त्व दुष्टग्राहोऽम्भसा पति ॥ अनलकृतकान्त ते वदन, वनजाति । निशाकृत प्रकृत्यैव चारो. का वास्त्यलकृति ॥ अन्येपामपि कर्तव्या ससृष्टिरनया दिशा । कियदुट्टितज्ञेभ्य शक्य कथयितु मया ॥ इस प्रकार भामह तथा वामन के मत में बहुत भेद है । वामन उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को ससृष्टि का भेद मानते है । परन्तु भामह उन तीनो को अलग-अलग अलङ्कार मानते है । १ भामह काव्यालङ्कार ३, ३५-३६ । २ भामह काव्यालङ्कार ३, ४७-४८ । भामह काव्यालङ्कार ५, ४९-४२ ।

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