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________________ ८२] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र १७-१८ अप्रसिद्धासभ्यार्थान्तरं पदमप्रसिद्धासभ्यं तद् गुप्तम् । यथा 'सम्वाधः' इति पदम् । तद्धि सङ्कटाणे प्रसिद्ध, न गुह्यार्थमिति ॥ १६ ॥ __ लाक्षणिकासभ्य लक्षितम् । २, १, १७ । तदेवासभ्यार्थान्तरं लाक्षणिकेनासभ्येनार्थेनान्वितं पदं लक्षितम् । यथा 'जन्मभूमिः' इति । तद्धि लक्षणया गुह्यार्थ न स्वशक्त्येति ॥ १७॥ । लोकसवीत सवृतम् । २, १, १८ । लोकेन संवीत लोकसंवीतम् । यत् तत् संवृतम् । यथा 'सुभगा', 'भगिनी', 'उपस्थानम्', 'अभिप्रेतम', 'कुमारी', 'दोहदम्' इति । अत्र हि श्लोक: [जिसका ] दूसरा [अर्थात् ] असभ्य अर्थ [ हो पर ] प्रसिद्ध न हो वह अप्रसिद्धासभ्य पद 'गुप्त' [कहलाता ] है । जैसे 'सम्बाघः' यह पद । ['वेशेऽपि गन्धः सम्बाघो गुह्यसङ्कटयोर्द्वयोः' इस कोश के अनुसार 'सम्वाध' पद गुह्येन्द्रिय उपस्थ तथा सङ्कट दोनो का वाचक है । परन्तु इनमें से ] वह [सम्बाघ पद ] सङ्कट अर्थ में प्रसिद्ध है गुह्य [ उपस्थेन्द्रिय ] अर्थ में [प्रसिद्ध] नहीं। [ इसलिए अश्लील अर्थ के गुप्त अर्थात् अप्रसिद्ध होने से इस पद का प्रयोग अश्लीलतायुक्त नहीं है। ] ॥१६॥ [असभ्य अर्थान्तर वाला पद] असभ्य अर्थ के लाक्षणिक [ लक्षणागम्य] होने पर लक्षित [असभ्य अर्थ ] होता है [ और वह अश्लील नहीं कहलाता है। वही असभ्यार्थान्तर वाला पद, यदि लाक्षणिक असभ्यार्थ से युक्त हो तो लक्षित [ लक्षितासभ्यार्थ ] कहलाता है [और वह अश्लील नहीं होता है ] । जैसे 'जन्मभूमि यह [पद]। वह लक्षणा से गुह्य [स्त्री की योनि या उपस्थ ] का बोधक है अपनी [अभिधा ] शक्ति से नही। [ इसलिए वह अश्लील नहीं है ]॥ १७ ॥ लोक [व्यवहार ] से [असभ्यार्थ ] दवा हुआ [ होने पर ] सवृत [प्रसभ्या कहलाता है [और वह भी अश्लील नही होता है । लोक [ व्यवहार ] से [ संवीत ] दवा हुआ 'लोफ सवीत' जो पद होता है वह सवृत [पद ] है [वह अश्लीलता दोष युक्त नहीं होता] । जैसे 'सुभगा', 'भगिनी', [-न दोनो पदो में 'भग' शब्द रत्री के गहाङ्ग अर्थात् योनि का
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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