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द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्याय.
सवीतस्य हि लोकेन न दोषान्वेषणं क्षमम् । शिव लिङ्गस्य संस्थाने कस्यासभ्यत्वभावना ॥ १८ ॥ तत्त्रैविध्य व्रीडाजुगुप्साऽमङ्गलातङ्कदायिभेदात् । २,१,१६ । तस्याश्लीलस्य त्रैविध्यं भवति, ब्रीडाजुगुप्साऽमङ्गलातङ्कदायि - भेदात् । किचिद् व्रीडादायि यथा 'वाक्काटवम्', 'हिरण्यरेता.' इति । किचिज्जुगुप्सादायि यथा 'कपर्दकः' इति । किञ्चिदमङ्गलातकदायि यथा 'संस्थितः' इति ॥ १६ ॥
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सूत्र १६]
वाचक है ], 'उपस्थान' [ समीपस्थ होना या स्तुति करना । इसमें 'उपस्थ' अंश
से पुरुष के गुह्याङ्ग अर्थात् उपस्थंन्द्रिय का बोध होता है ], 'अभिप्रेतम्' [ का अर्थ अभिप्राय होता है परन्तु उसके 'प्रेत' अश से मुर्दा का बोध होता है ], 'कुमारी', 'दोहद' [ वोहद पद इच्छा का बोधक है परन्तु उससे 'हद पुरीषोत्सर्गे' धातु की स्मृति होती है जो जुगुप्सा व्यञ्जक है । परन्तु इन सब स्थलों में यह अश्लीलता व्यञ्जक अर्थ लोक व्यवहार से दब गए है । भगिनी आदि शब्दो का बहिन आदि सुन्दर प्रर्यो में अत्यधिक प्रयोग होता है । जिसके कारण अन्य असभ्य अर्थ सामने नहीं आते है । उन शब्दो के प्रयोग में अश्लीलता नहीं है ] इस विषय में [ किसी प्राचीन श्राचार्य का ] श्लोक [ भी ] है
[ असभ्यार्थ के ] लोक व्यवहार से दबे हुए [ असभ्यार्थं वाले भगिनी श्रादि पदो ] के दोष का अनुसन्धान उचित नहीं है । [ साक्षात् ] शिवलिङ्ग की स्थापना में [भी] प्रसभ्यार्थ की भावना किम को होती है [ किसी को नहीं । क्योकि लोक व्यवहार में शिवलिङ्ग सार्वजनिक पूजा का पात्र वन' गया *1] 11 25 11
उस [ अश्लील अर्थ ] के व्रीडा [ लज्जा ], जुगुप्सा, [ घृणा ] और [ अनिष्ट भय को देने वाला ] श्रमङ्गलातङ्कायो भेद ने तीन प्रकार होते है ।
उस अश्लील के तीन भेद होते है । व्रीडादायी [ लज्जाजनक ], जुगुप्सादायी [ घृणाकारक ] घोर कमङ्गलातङ्कदायी [ अनर्थभय के देने वाला ] भेद होने से । कोई [ पद ] लज्जाजनक होता है, जैसे 'वाक्काटवम् और 'हिरण्यरेता.' यह । [ 'arenaम्' का जर्थ होता है वचन को तीक्ष्णता । परन्तु इसका 'काट' यह एक देश लिङ्ग की प्रतीति कराने वाला होने से व्रीडादायी. लज्जाजनक, होने से अश्लील है । इसी प्रकार 'हिरण्यरेता.' में रेतम् क्रश वीयं का बोधक होने से ब्रोडादायी ली है । ] कोई [ पद ] जुगुप्सावानी [ घृणा