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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र २०
व्यवहितार्थप्रत्यय क्लिष्टम् । २, १, २० । अर्थस्य प्रतीतिरर्थप्रत्ययः । स व्यवहितो यस्माद् भवति तद् व्यवहितार्थप्रत्ययं क्लिष्टम् । यथा-
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दक्षात्मजादयितवल्लभवेदिकानां ज्योत्स्नाजुपां जललवास्तरलं पतन्ति । दक्षात्मजास्ताराः । तासां दयितो दक्षात्मनादयितश्चन्द्रः । तस्य वल्लभाश्चन्द्रकान्ताः । तद्वेदिकानामिति श्रत्र हि व्यवधानेनार्थ
प्रत्ययः ।। २० ।।
जनक होने से अश्लील होता है ] जैसे 'कपर्दक' यह [ कौड़ी वाचक होने पर भी 'पर्द' शब्द 'पर्द कुत्सिते शब्दे' इस धातु पाठ के अनुसार और 'पदंस्तु गुदजे शब्दे ' इस कोष के अनुसार अपान वायु का बोधक होने से जुगुप्साव्यञ्जक अश्लील है ] कोई [ पद ] श्रमङ्गलातङ्कदायी [ अनिष्ट अनर्थ का भय दिखाने वाला होने से अमङ्गल व्यञ्जक अश्लील ] होता है । जैसे 'सस्थित ' यह पद । [ भली प्रकार से स्थित, इस अर्थ में प्रयुक्त होता है । परन्तु उसका दूसरा अर्थ 'मृतः ' भी होता हैं, इसलिए यह श्रमङ्गलातङ्कदायी अश्लील है । ] ॥ १६ ॥
जिस पद के अर्थ की प्रतीति व्यवधान से हो उसको 'क्लिष्ट' कहते है । अर्थ की प्रतीति को प्रर्थ प्रत्यय कहते है । वह [ अर्थ प्रत्यय ] जिस [ पद ] से व्यवहित [ व्यवधान से ] होती है [ साक्षात् नहीं ] वह व्यवहित अर्थ प्रतीति वाला [ पद ] क्लिष्ट कहलाता है । जैसे
[ दक्षात्मजा ] दक्ष की पुत्री [ तारा ] के [दयित ] प्रिय [ चन्द्रमा ] की वल्लभाम्रो [ चन्द्रकान्त मणियो ] की वेदिकाओ के चादनी के साथ संयोग से चञ्चल जल कण गिर रहे है ।
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[ इस श्लोक में ] दक्षात्मजा [ का अर्थ ] तारा है । उनका दयित [ अर्थात् प्रिय हुआ ] दक्षात्मजादयित अर्थात् चन्द्रमा । उसकी वल्लभा चन्द्रकान्त [ मणि हुई ] उस [ चन्द्रकान्त मणि ] को [ बनी हुई ] वेदिकानो के । यहा [ दक्षात्मजाद विनवल्लभ पद से चन्द्रकान्त मणि रूप ] अर्थ की प्रतीति व्यवधान 'होती है [ इसलिए इसे क्लिष्टत्व दोष का उदाहरण समझना चाहिए ] |
यह क्लिष्टत्व दोप का उदाहरण दिया है । इसके पूर्व 'नेयार्थ' का जो उदाहरण ग्रन्थकार ने दिया था वह भी कुछ इसी प्रकार का उदाहरण था । इसलिए 'नेयार्थत्व' और 'क्लिष्टत्व' का भेद दिखलाने की आवश्यकता है । वामन ने