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________________ सूत्र २१-२२ ] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्याय. [ ८५ अरूढार्थत्वात् । २, १, २१ । रूढार्थत्वेऽपि यतोऽर्थप्रत्ययो झटिति, न तत् क्लिष्टम् । यथाकाचीगुणस्थानमनिन्दितायाः । इति ॥ २१ ॥ अन्त्याभ्या वाक्य व्याख्यातम् । २१, २२ । अश्लीलं क्लिष्टचेत्यन्त्ये पदे । ताभ्यां वाक्यं व्याख्यातम् | तदप्यश्लील क्लिष्टश्च भवति । अश्लीलं यथा जिसको 'कल्पितार्थं नेयार्थम्' कहा है उसी को नवीन आचार्यों ने 'रूढ़िप्रयोजनाभावादशक्तिकृतलक्ष्यार्थप्रकाशनं नेयार्थम्' कहा है । अर्थात् जहा रूढ़ि अथवा प्रयोजन रूप लक्षणा के प्रयोजक हेतुत्रों के अभाव मे लक्ष्यार्थ का प्रकाशन हो उसे 'नेयार्थ' कहते हैं । और व्यवहितार्थ प्रतीति को 'क्लिष्टत्व' कहते हैं । अर्थात् 'क्लिष्टत्व' मे लक्षणा की आवश्यकता नही होती है केवल अर्थ की प्रतीति में विलम्ब होता है। जैसे 'दक्षात्मजादयित' का अर्थ तारापति चन्द्र, अथवा 'दक्षात्मजादयितवल्लभा' का चन्द्रकान्ता अर्थ लक्षणा से नही, अभिधा से ही हो सकता है । उसकी प्रतीति झटिति नही तनिक विलम्ब से होती है । इसलिए यहा 'क्लिष्टत्व' दोष माना है | परन्तु 'विहङ्गमनामभृत्' का 'रथ' यह अर्थ अभिधा से नही हो सकता है। इसी प्रकार 'उलूकजिता' मे भी मेघनाद अर्थ अभिधा से सम्भव न होने से लक्षणा का ही श्राश्रय लेना होगा । इसलिए उसे 'नेयार्थ' का उदाहरण कहा है। [ क्लिष्ट दोष के स्थल में व्यवहित अर्थ की प्रतीति ] अरूढ़ अर्थ होने से [ बिलम्ब से होती है ] | [ अरूढ अर्थात् अप्रसिद्ध अर्थ होने के कारण जहाँ अर्थ की प्रतीति में विलम्ब होता है वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है । परन्तु ] अरूढ़ [ अप्रसिद्ध ] प्रर्थ होने पर भी जिस [ शब्द ] से श्रर्थ की प्रतीति झट से हो जाती है वह 'क्लित्व' नहीं कहलाता है । जैसे कमर ] यह । [ यहाँ परन्तु उससे अर्थ की सुन्दरी के करघनी पहिनने का स्थान [ अर्थ 'काञ्चीगुणस्थान' पद कटि देश के अर्थ में रूढ नहीं है, प्रतीति तुरन्त बिना विलम्ब के हो जाती है इस लिए यहाँ क्लिष्टत्व दोष नहीं माना जाता है । ] ॥२१॥ अन्तिम दोनो [ श्रर्थात् अश्लीलत्व तथा क्लिष्टत्व रूप पद-दोषो ] से
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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