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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र २२ न सा धनोन्नतिर्या स्यान् कलारतिदायिनी। परार्थबद्धकक्ष्याणां यन् सत्यं पेलवं धनम् ॥ १ ॥ सोपानपथमुत्सृज्य वायुवेगः समुद्यतः ।
महापथेन गत्वान् कीर्त्यमानगुणो जनैः ॥ २॥ वाक्य [ वाक्यगत अश्लीलत्व तया क्लिप्टत्व ] को व्याख्या हो गई । [अर्थात् इस अध्याय में यद्यपि चादय-दोषो का निरूपण नहीं किया गया है परन्तु क्लिष्टत्व और प्रश्लीलत्व यह दोनों दोष पदार्थदोष के अतिरिक्त वाक्यदोष भी होते है। उनके वाक्यगत उदाहरण प्रागे वृत्ति ग्रन्थ में देते है। ]
अश्लील और क्लिष्टत्व यह अन्तिम दो पद है । उनके द्वारा वाक्य [अर्थात् वाक्यगत अलीलत्व तथा क्लिप्टत्व ] की व्याख्या हुई [ समझना चाहिए। ] वह [ वाक्य ] भी अश्लील तथा क्लिष्टत्व हो सकता है।
[वाक्यगत ] अश्लील [ का उदाहरण ] जैसे
उस को धन की उन्नति नहीं कहते है जो [किसी दूसरे के या परोपकार के काम में न आवे ] केवल अपनी स्त्री [अपने बीवी-बच्चों ] के ही सुख के लिए हो । दूसरो के उपकार] के लिए कमर कसे हुए लोगो का धन ही वस्तुतः सुन्दर [और यथार्थ] धन है।
___ यह इस श्लोक का अभिप्रेत अर्थ है । परन्तु उससे दृमरा ब्रीडादायि अश्लील अर्थ भी निकलता है । 'साधन' का अर्थ लिङ्ग होता है । कलत्र अर्थात् स्त्री की गतिदायिनी, साधन अर्थान् लिङ्ग की उन्नति, जो केवल अपनी स्त्री के लिए श्रानन्ददायक लिड्न की उन्नति है वह वास्तविक 'साधनोन्नति नहीं है अपितु पगर्थ के लिए कमर कस हुए अर्थात् अन्य स्त्रियों के साथ भी मन्नोग के लिए समर्थं पुरुषों की 'साधनोन्नति' ही यथार्थ 'साधनोन्नति' है । यह अर्थ ब्रीडादायि अश्लील होता है । और वह एक पद में नहीं परन्तु समस्त वाक्य से निकलता है। अत. वाक्यगत दोप है।
जगप्सा व्यजक वाक्यगत अग्लीलता का दूमरा उदाहरण देते है। लोगों के द्वारा जिसके वेग भयङ्करता प्रादि] गुणो का कीर्तन किया जा रहा है ऐसा वायु का प्रचण्ड वेग [आंघो] सीढियो के [सङ्कीर्ण ] मार्ग को छोड़कर महापय [अर्थात् राजमार्ग] से निकल गया। [ इममें वह तीव, वायु का वेग अपानवायु के मार्ग को छोड़ कर महापय अर्थात् मुखमार्ग से बड़ी जोर से उकार रूप से निकल गया ऐमा दूसरा अर्थ भी प्रतीत होता है । अत. यह वाक्यगत जगुप्सा