________________
[ २५
प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
माधुर्यसौकुमार्योपपन्ना पाञ्चाली | १, २, १३ | माधुर्येण सौकुमार्येण च गुणेनोपपन्ना पाञ्चाली नाम रीतिः । ओजःकान्त्यभावादनुल्वणपदा विच्छाया च । तथा च श्लोकःअश्लिष्टश्लथभावां तां पूरणच्छाययाश्रिताम् । मधुरां सुकुमाराश्च पाञ्चाली कवयो विदुः ||
यथा,
सूत्र १३ ]
'प्रामेऽस्मिन् पथिकाय नैव वसतिः पान्थाधुना दीयते, रात्रावत्र विहारमण्डपतले पान्थ प्रसुप्तो युवा । तेनोत्थाय खलेन गर्जति घने स्मृत्वा प्रियां तत्कृतम्, येनाद्यापि करङ्कदण्डपतनाशङ्की जनस्तिष्ठति ॥
[ ओज और कान्ति के विपरीत ] 'माधुर्य' और 'सौकुमार्य' [ रूप दो गुणों ] से युक्त पाञ्चाली रीति होती है ।
'माधुर्य' तथा 'सौकुमार्य' गुणों से युक्त 'पाञ्चाली' नामक रीति होती है । [ उसमें ] श्रोज और कान्ति का अभाव होने से उसके पद [ गाढत्व रूप 'प्रोज' से विहीन ] सुकुमार और [ कान्ति का अभाव होने से ] विच्छाय [ कान्तिविहीन ] होते हैं। जैसा कि [ उस 'पाञ्चाली' के विषय मे निम्नलिखित प्राचीन ] श्लोक है
गाढ़बन्ध से रहित [ श्रोनोविहीन ] श्रोर शिथिल [ अनुज्ज्वल ] पद वाली, [ गौडी रीति के विषय भूत, 'श्रोज' के विपरीत ] 'माधुर्य' और [ कान्ति के विपरीत ] 'सौकुमार्य' से युक्त सम्पूर्ण सौन्दर्य से शोभित 'रीति' को कवि 'पाचाली' रोति कहते हैं ।
जैसे :
हे पथिक इस ग्राम में अब पथिकों को [ रात्रि में ठहरने के लिए ] स्थान नहीं दिया जाता है। [ क्योंकि एक बार ऐसे ही किसी पथिक को यहां ठहरा लिया था, परन्तु ] रात्रि में यहां विहार [ बौद्ध मठ ] के मण्डप के नीचे सोते हुए उस [ नवयुवक पथिक ] ने [ वर्षा ऋतु की रात्रि में ] मेघ के गर्जने पर उठ कर [ उसके कारण अपनी प्रिया को स्मरण करके वह
१ शाङ्ग घर पद्धतिः ३८३९ |