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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [सूत्र १८-१६ न हि शणसूत्रवानमम्यसन् कुविन्दस्त्रसरसूत्रवानवैचित्र्य लभते ॥ १८ ॥
सापि समासाभावे शुद्धवैदर्भी । १, २, १६ ।
सापि वैदर्भी शुद्धवैदर्भी भण्यते, यदि समासवत् पदं न भवति ॥१६॥
तस्यामर्थगुणसम्पदास्वाद्या । १, २, २० । [ रेशम ] के सूत्र के तुनने में विचक्षणता [कौशल ] की प्राप्ति नहीं होती है।
सन के सूत्र से बुनने का अभ्यास करने वाला धुनकर टसर [रेशम] के सूत्र के वुनने में वैचित्र्य को प्राप्त नहीं करता है।
इसी प्रकार का एक प्रसङ्ग योगदर्शन के प्रथम पाद में पाया है। योग दर्शन में सम्प्रजात और असम्प्रज्ञात दो प्रकार की समाधि मानी गई है। जिस प्रकार यहा अतत्त्व के अभ्यास से तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है यह कहा है, उसी प्रकार वहा सम्प्रजात या सालम्बन समाधि के अभ्यास से असम्प्रज्ञात समाधि की सिद्धि नहीं हो सकती है यह बात कही गई है।
"सालम्बनो ह्यन्यासस्तत्साधनाय न कल्पत इति विरामप्रत्ययो निर्वस्तुक श्रालम्बनीक्रियते । ॥ १८॥
ऊपर जिस समग्रगुण विभूषित वैदी रीति का वर्णन किया है वह और भी उत्कृष्ट शुद्ध वैदर्भी हो जाती है यदि उसमें समास का प्रयोग न हो। इसको ग्रन्थकार अागे कहते हैं।
वह [ वैदर्भी रीति ] भी समास के न होने पर [और भी उत्कृष्ट ] शुद्ध वैदर्भी कहलाती है।
वह वैदर्भी भी शुद्ध वैदर्भी कही जाती है यदि उसमें समासयुक्त पद न हों। [वैदर्भी का भी उत्कृष्ट रूप यह शुद्ध वैदर्भी है । यह अभिप्राय है] ॥१६॥
___ उसमें अर्थ गुणों का वैभव [ सम्पत्ति, समग्रता, पूर्ण सौन्दर्य प्रास्वाद्य अर्थात ] अनुभव करने योग्य होता है। -- - - - - - -- १ योग० १, १५॥
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