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सूत्र ७-८] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[७३ लोकप्रयुक्तमात्र ग्राम्यम् । २, १, ७ । लोक एव यत्प्रयुक्तं पदं न शास्त्रे तद् प्राम्यम् । यथा
'कष्टं कथं रोदिति फूत्कृतेयम् ।'
अन्यदपि तल्लगल्लादिकं द्रष्टव्यम् ॥७॥ - शास्त्रमात्रप्रयुक्तमप्रतीतम् । २, १, ८ । शास्त्र एव प्रयुक्तं यन्न लोके तदप्रतीतम् । यथा'किं भापितेन बहुना रूपस्कन्धस्य सन्ति मे न गुणाः । गुणनान्तरीयकच प्रेमेति न तेऽस्त्युपालम्भः ॥ अत्र रूपस्कन्धनान्तरीयकपदे न लोके इत्यप्रतीतम् ।। ८॥
जो केवल लोक में ही प्रयुक्त हो [शास्त्र में नहीं ] वह ग्राम्य पद कहलाता है।
जो पद केवल लोक में ही प्रयुक्त हो शास्त्र में नहीं वह ग्राम्य [पद] कहलाता है । जैसे
हाय यह [चूल्हा आदि ] फूकने वाली [ घुए आदि के कारण ] कैसे रो रही है । [ यहाँ फूत्कृता शब्द प्राम्य है । उसका काव्यो में सत्कवियो द्वारा प्रयोग नहीं किया जाता है ।
इसी प्रकार तल्ल गल्ल प्रादि शब्द भी [ग्राम्य पद] समझने चाहिएं [जैसे-ताम्बूलभूतगल्लोऽयं तल्लं जल्पति मानवः । पान से भरे हुए गालो वाला यह आदमी अच्छी बकवाद कर रहा है। इस उदाहरण में प्रयुक्त 'गल्ल' और 'तल्ल' शब्द भी गाम्यपद ही समझने चाहिएं ] ॥७॥
केवल शास्त्र में प्रयुक्त होने वाला [ लोक में प्रयुक्त न होने वाला] पद 'अप्रतीत पद' [ दोषग्रस्त ] कहलाता है।
जो केवल शास्त्र में ही प्रयुक्त होता है लोक में नहीं वह [पद ] 'अप्रतीत पद' होता है । जैसे
___ बहुत कहने से क्या लाभ, सीधी बात यह है कि मेरे भीतर शरीर [रूपस्कन्ध ] के [ सौन्दर्य प्रादि ] गुण नही है और प्रेम [ उन शारीरिक सौन्दर्य प्रादि ] गुणो का [ नान्तरीयक ] अविनाभावी है इसलिए [ तुम मुझे प्रेम क्यो नहीं करते यह ] तुम्हे उलाहना [ तो] दिया ही नहीं जा सकता है।
यहा 'रूपस्कन्ध [पद मुख्य रूप से बौद्ध दर्शन में रूप, वेदना, विज्ञान,