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सूत्र
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द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
[७५
यथा
उदितस्तु हास्तिकविनीलमयं,
तिमिरं निपीय किरणैः सविता ॥ अत्र 'तु' शब्दस्य पादपूरणार्थमेव प्रयोग : न वाक्यालङ्काराथम् । वाक्यालङ्कारप्रयोजनं तु नानर्थकम् । अपवादार्थमिदम् । यथा
नल्विह गतागता नयनगोचरं मे गता ॥६॥ दूसरा प्रश्न किया । परन्तु उसके साथी ने इस दूसरे प्रश्न का उत्तर दिया कि जब डंडा ही चूहे ले गए तो क्या पुए उन्होंने छोड़ दिए होगे। पुए भी चूहे ही ले गए यह तो स्वय ही सिद्ध हो जाता है, कहने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जहा एक बात के कहने से दूसरा परिणाम तो स्वयं ही निकल आता है उसको दण्डापिका-न्याय' कहा जाता है । दार्शनिक क्षेत्र में इसी को अापत्ति प्रमाण भी कहा जाता है । इसका नाम है 'दण्डापप-न्याय' । प्रकृत में, 'च'
आदि निपात, जो किसी अर्थ के वाचक नहीं होते केवल द्योतक होते हैं, वह ही केवल पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त होने पर जब अनर्थक कहलाने लगते हैं तब वाचक पद यदि निष्प्रयोजन कहीं प्रयुक्त हो जावे तो वे भी अनर्थक कहलाने लगेगे यह तो 'दएडापूपिका-न्याय' से स्वतःसिद्ध है ही। इसी बात को ग्रन्थकार ने 'दण्डापुपन्यायेन पदमन्यदपि अनर्थकमेव ।' लिख कर प्रकट किया है। आगे अनर्थक पद का उदाहरण देते हैं।
हाथियो के समूह को नीलिमा से निर्मित [जैसे] अन्धकार को [अपनी ] किरणो द्वारा पान [ नाश ] करके सूर्यदेव उदय हुए।
___ यहां [मूल श्लोक में ] 'तु' शब्द का प्रयोग पादपूरणार्थ ही किया गया है, वाश्यालङ्कार के लिए नही । [ इसलिए वह अनर्यक है ] 1 वाक्यालङ्कार के लिए किया गया [तु आदि का प्रयोग ] तो अनर्थक नहीं होता।
अर्थात् 'तु', 'खलु' आदि का प्रयोग कही केवल पादपति मात्र के लिए किया जाता है और कही वाक्यालङ्कार के लिए भी उनका प्रयोग किया जाता है। इनमे से जहा केवल पादपूर्ति के लिए 'तु' आदि का प्रयोग किया जाता है वहा 'अनर्थकपद' दोप होता है । और जहा वाक्यालङ्कार मे उनका प्रयोग होता है वहा दोष नहीं होता है। यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है।
यह [पूर्वोक्त नियम के ] अपवाद के लिए कहा है। जैसे[वह ] यहां पाती जाती मुझे दिखाई नहीं दी।