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दोष-दर्शन
दोषों का वर्णन संस्कृत साहित्य-शास्त्र में प्रारम्भ से ही मिलता है और प्राचार्यों ने प्रायः दोष-विवेचन पहले किया है, गुण-अलंकार-वर्णन बाद में । यह मानव-स्वभाव की सहज प्रवृत्ति का ही परिणाम है, इसीलिए श्रादि वैदिक ऋषि ने अपनी प्रार्थना में दुरित के परिहार की वांछा पहले की है और भद्र की कामना बाद में विश्वानि देव सवितरितानि परासुव-थद्भद्र तन्न प्रासुव । भारतीय काव्य-शास्त्र में भी दोष-वर्णन इतने आग्रह के साथ इसीलिए किया गया है क्योंकि दोष-परिहार को काव्य की पहली शर्त माना गया है। दण्डी ने प्रबल शब्दों में घोषणा की है कि काव्य में रंचमान्न दोष की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक छोटा सा भी कुष्ट का दारा सुन्दर से सुन्दर शरीर को कुरूप कर सकता है । (काव्यादर्श, १,७)। प्राचीन प्राचार्यों ने ही नहीं, उत्तर-ध्वनिकाल के प्राचार्यों ने भी निर्दोषता को काव्यलक्षण का अनिवार्य अंग माना है। पूर्व-ध्वनिकाल से वामन और उत्तरध्वनिकाल से मम्मट का काव्य-लक्षण उदाहरण-रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। निर्दोषता को अपने आप में एक महान गुण माना गया है । महान् निर्दोषता गुणः । काव्य के लिए निर्दोषता की अपेक्षा अधिक है अथवा रसवत्ता की दोनों में से कौनसा काव्य के लिए अनिवार्य है ? या मनुष्य अथवा काव्य में निदोषता कहां तक सम्भव है। ये विवादास्पद प्रश्न है जिनका समाधान अन्यत्र किया जाएगा। परन्तु दोष का विवेचन काव्यशास्त्र का-विशेष कर रीति-सिद्धात का-अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, इसमे सदेह नहीं । काव्य के सौदर्य-असौंदर्य अथवा प्रभाव का विश्लेषण करने के लिये दोष-दर्शन सर्वथा अनिवार्य है।