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दोनों गुण अनिवार्यतः होने चाहिए । प्रसाद के विषय में एक बात स्मरण रखनी चाहिए : अनेक शब्द सर्वसाधारण के प्रयोग के कारण क्षुद्र बन जाते हैं:-'अतिपरिचयात् श्रवज्ञा । श्रतएव प्रसाद को अतिप्रचलित शब्दों तथा मुहावरों की क्षुद्रता से मुक्त रखना चाहिए। किन्तु उदात्त शैली के लिए प्रसाद पर्याप्त नहीं है— गरिमा भी उतनी ही अनिवार्य है । गरिमा का समावेश करने के लिए अरस्तू ने अनेक उपकरणों का निर्देश किया है— एडिसन उन्हों को उद्धृत कर देते हैं। वास्तव में एडिसन अरस्तु की भाषा ही बोलते है - इस प्रसंग में उन्हें अपना कुछ नहीं कहना है ।
पोप
पोप में नव्यशास्त्रवाद का प्रतिनिधि रूप मिलता है । उन्होंने भी बोइलो के स्वर में स्वर मिलाते हुए प्रकृति की गौरव प्रतिष्ठा की— उनकी प्रकृति भी वही रीतिबद्ध प्रकृति है जो शास्त्र का पर्याय है । नव्यशास्त्रवादियों के सिद्धान्त और व्यवहार में एक विचित्र विरोध दृष्टिगत होता है : उनके सिद्धान्तों में जहां काव्य के मौलिक तत्वों की प्रतिष्ठा है, वहां व्यवहार में काव्य की अनेक कृत्रिमताओं का नियमित रूप से समावेश रहता है । उदाहरण के लिए उन्होंने काव्य में शब्द को अपेक्षा अर्थ को हो महत्व दिया है, परन्तु उनके अपने काव्य का प्रधान गुण है भाषा की मसृणता तथा प्रसन्नता । उन्होंने भाषा को निखारने के लिए भाव की प्रायः बलि दे दी है। वास्तव में यही युग यूरोप में रीतिवाद का युग है। पोप ने अपने श्रालोचना-विषयक छन्दोबद्ध निबन्ध में शैली के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं: शैली ( अभिव्यंजना) विचार का परिधान है और वह जितना संगत होगा उतना ही सुन्दर लगेगा । किसी क्षुद्र कल्पना को यदि चमक-दमक चाली शब्दावली में श्रभिव्यक्त किया जाए तो वह ऐसी लगेगी मानों विदूषक को राजसी परिधान पहना दिये हों, क्यों कि जैसा विषय हो वैसी ही शैली होनी चाहिए जिस तरह कि ग्राम, नगर शोर राजदराबर की पोशाक अलग अलग होती है । +
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देखिए - पोप का 'एसे ऑन क्रिटिसिज्म ।
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