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॥श्रीः॥
विषयानुक्रमणी द्वितीये नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः
१. अमादेश तथा लुगविधान
पृ० सं०१ - २८ [ 'उपकुम्भम्' इत्यादि में अव्ययीभाव समास से परवर्ती 'सि' आदि विभक्तियों के स्थान में अम् आदेश, सूत्रपठित 'अव्ययीभावात्' तथा 'अकारान्तात्' इन दो पदों में विशेष्य - विशेषण के निर्धारणार्थ विशेष्य-विशेषण शब्दों की परिभाषाएँ, विशेष्य-विशेषण की समानविभक्त्यादिपरता, उद्देश्यविधेयभाव में लिङ्गादियोजना की अनिवार्यता नहीं, उद्देश्य - विधेय शब्दों की व्युत्पत्ति, तृतीयासप्तमी विभक्तियों के स्थान में वैकल्पिक अमादेश । अकारान्तभिन्न अव्ययीभाव समास में 'सि' आदि विभक्तियों का लुक्, अव्ययसंज्ञा के अन्वर्थ होने से अव्ययीभाव की अव्ययसंज्ञा का अभाव, अव्यय शब्द की व्युत्पत्ति, ‘पञ्चालाः, विदेहाः' आदि जनपदसमान शब्दवाले क्षत्रियविशेष के बोधक शब्दों से बहुबचन में विहित अपत्य प्रत्यय का लुक्, इन शब्दों के अवबोधार्थ पाणिनि की तद्राजसंज्ञा तथा कातन्त्रकार का 'रूढ' शब्दप्रयोग, लोकसिद्ध शब्दों को व्युत्पादित करने की आवश्यकता नहीं, मन्दमतिबोधार्थ लुविधान, तद्धितशब्दों की आकृतिप्रधानता, पौत्र तथा दौहित्र में विशेषाभाव, गर्गादि-बिदादि -यस्कादि गणपठित शब्दों से तथा 'भृगु' आदि ऋषिनामों से बहुत्व अर्थ में विहित अपत्यप्रत्यय का लुक्, कुलसम्बन्ध के प्रति गर्ग और गार्य में अभेद ] | २. अपादानसंज्ञा
' पृ० सं०२८-४५ [ पाणिनीय व्याकरण में अपादानसंज्ञाविधायक आठ तथा कातन्त्र में दो सूत्र, अपादान के दो भेद - बाह्य और बौद्ध, कातन्त्रविस्तरकार का अभिमत, अपादान के तीन भेद, अपादान महासंज्ञा की अन्वर्थता, इसका नाट्यशास्त्र में उल्लेख, चान्द्रजैनेन्द्र-हेमचन्द्र-मुग्धबोध-अग्निपुराण-नारदपुराण एवं शब्दशक्तिप्रकाशिका में इसका