Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ प्रस्तावना दोनों चूणियोंके उन दो उल्लेखोंमेंसे कषायप्राभूत चूर्णिको सामने रखकर कर्मप्रकृति चूणिके पाठपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मप्रकृति चूर्णिकारके सामने कषायप्राभुत चूणि नियमसे रही है । प्रथम तो उसका कारण कर्मप्रकृति चूर्णिके उक्त उल्लेखमें पाया जानेवाला 'तस्स विहासा' पाठ है, क्योंकि किसी मूल सूत्र गाथाका विवरण उपस्थित करनेके पहले एत्तो सुत्त विहासा' या 'तस्स विहासा' या मात्र 'विहासा' पाठ देनेकी परम्परा कषायप्राभूत चूणिमें ही पाई जाती है। किन्तु श्वे० कर्मप्रकृति चूणिमें किसी भी गाथाकी चणि लिखते ससय 'तस्स विहासा' यह लिखकर उसका विवरण उपस्थित करनेकी परिपाटी इस स्थलको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। एक तो यह कारण है कि जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वे कर्मप्रकृतिचूर्णिकारके सामने कषायप्राभूतचूणि नियमसे उपस्थित रही है। दूसरे श्वे० कर्मप्रकृतिको इस चर्णिमें 'गोपुच्छागितीते' पाठका पाया जाना भी इस तथ्यका समर्थन करनेके लिये पर्याप्त कारण है। हमने श्वे० कर्मप्रकृति मूल और उसकी चूर्णिका यथा सम्भव अवलोकन किया है, पर हमें उक्त स्थलकी चूर्णिको छोड़कर अन्यत्र कहीं भी इस तरहका पाठ उपलब्ध नहीं हुआ जिसमें निषेक क्रमसे स्थापित प्रदेश रचनाके लिये गोपुच्छाकी उपमा दी गई हो। तीसरे उक्त दोनों चूणियोंमें रचनाके जिस क्रमको स्वीकार किया गया है उससे भी इसी तथ्यका समर्थन होता है कि श्वे० कर्मप्रकृतिचूणिके लेखकके सामने कसायपाहुडसुत्तकी चूर्णि नियमसे रही है। इस प्रकार दोनों चूर्णियोंके उपशामना अधिकार पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यतिवृषभ आचार्य न तो कर्मप्रकृति चूणिके कर्ता ही हैं और न ही कषायप्राभूत चूर्णिको निबद्ध करते समय उनके सामने श्वे० कर्मप्रकृति मूल ही उपस्थित रही है । उन्होंने अपनी चूर्णिमें जिस कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है वह प्रस्तुत श्वे० 'कर्मप्रकृति न होकर अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवीं वस्तुका चौथा अनुयोगद्वार महाकम्मपयडिपाहुड ही है । उसके २४ अवान्तर अनुयोगद्वारोंको ध्यान में रख कर ही आ० यतिवृषभने 'कम्मपयडीसु' में बहुबचनका निर्देश किया है। सर्वकरणोपशामना और उसका दूसरा नाम करण आठ हैं-बन्धनकरण, उदीरणाकरण, संक्रमकरण, उत्कर्षणकरण, अपकर्षणकरण, अप्रशस्त उपशमनाकरण. निधत्तीकरण और निकाचनाकरण। कर्मोके बन्ध आदि आत्माके परिणाम मुख्य निमित्त हैं, इसलिये इनकी करण संज्ञा है। स्वभावभूत सहज आत्माके अवलम्बनसे इन बन्धादि समस्त करणोंकी क्रमसे उपशामना होती है, इसलिये इस उपशामनाको सर्वकरणोपशामना कहा गया है। सर्वोपशामना आत्माके मोक्षमार्गमें साधक आत्माके बिशुद्ध परिणामोंके निमित्त होती है, इसलिये इसका दूसरा नाम प्रशस्त करणोपशामना भी है। श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें इसे इन दो नामोंके अतिरिक्त गुणोपशामना भी कहा गया है। यह भी एक ऐसा प्रमाण है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्वे० कर्मप्रकृति चूणिकी बात तो छोड़िये, कषाप्राभूत चूर्णिकी रचना करते समय आ० यतिवृषभके सामने श्वे० कर्मप्रकृति भी उपस्थित नहीं थी। यह प्रशस्त करणोपशामना मात्र मोहनीय कर्मकी ही होती है। उसमें भी चारित्रमोहनीयकी प्रशस्त उपशामना करते समय आठों करणोंकी होती है। मात्र दर्शन मोहनीयकी प्रशस्त १. कषायपाहुड सुत्त पृ० ६०८, ७००। २. पृ० ७१५। ३. वही ७०९ ।

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