Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ प्रस्तावना एवं मिच्छदिट्टिस वगं मिस्सगं तओ पच्छा || ६६ । संक्रमक० इस तथ्य की उसकी चूंणिसे भी पुष्टि होती है । यथा मिच्छादिट्ठि अट्ठावीस संतकम्मितो पुव्वं सम्मत्तं एतेण विहिणा उब्वलेति । ततो सम्मामिच्छत्तं ते चेव विहिणा । इसी तथ्यको दिगम्बर परम्परा भी स्वीकारती है । यथा ९ मिच्छे सम्मिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति । उव्वेलणं तु तत्तो दुचरिमकंडो त्ति नियमेण || ४१२ || गो० क० (२) यह दोनों चूणियों का एक-एक उदाहरण है जो इस तथ्य की पुष्टि करने के लिये पर्याप्त हैं कि इन दोनों चूणियोंका कर्ता एक व्यक्ति नहीं हो सकता। आगे भी हम इन दोनों चूर्णयों में मतभेद के कतिपय उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं जिनसे इस तथ्य की पुष्टि में और भी सहायता मिलेगी । श्वे० कर्मप्रकृति चूर्णिके इस उल्लेखपर दृष्टिपात कीजिये - इदानीं सम्मदिट्टिस्स उव्वलमाणितो भण्णंति - ' अहाणियदृमि छत्तीसाए' असद्द अण्णाहियारे । किमण्णं ? भण्णइ - कालओ अंतोमुहुत्तेण उव्वलति त्ति । तं दरसेति - अणिट्टखवगो छत्तीसं कम्मपगतीतो एएणेव विहिणा उन्नलेति । कर्मचूर्णि । आशय यह है कि अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थानमें जिन ३६ प्रकृतियोंकी क्षपणा होती है वह उद्वेलना संक्रमपूर्वक ही होती है। इसी प्रकार इस चूर्ण में अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा भी उद्वेलनापूर्वक स्वीकार की गई है । जब कि कषाय प्राभृतचूर्णि में इस बातका अणुमात्र भी उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । (३) कषायप्राभृत चूर्णिके अनुसार जो जीव कषायोंकी उपशमना करता है वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें लोभसंज्वलनके मात्र पूर्वस्पर्धकोंसे ही सूक्ष्म कृष्टियोंकी रचना करता है । उल्लेख इस प्रकार है- से काले विदियतिभागस्स पढमसमए लोभसंजलणाणुभाग संत कम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेट्ठदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । किन्तु श्वे. कर्मप्रकृतिचूर्णि में पूर्वस्पर्धकोंसे अपूर्व स्पर्धकोंकी रचनाका विधान कर पुन उनसे कृष्टियोंके करनेका विधान किया गया है । यथा- अस्सकंनकरणद्धाते वट्टमाणो लोभसंजलणस्स पुत्रफद्दयेहितो समते समते अत्राणि फड्डगाणि करेति । जाव एयं ठाणं न पावति ताव पुत्रफड्डुगं अपुव्वफड्डुगस्स रूवेणेव अणुभागसंतकम्मं आसि, तीए पठमसमते किट्टीओ पकरेइ । (४) दोनों परम्पराओंके कर्मविषयक शास्त्रों में कुछ ऐसे भी शब्द प्रयोग पाये जाते हैं जो अपनी-अपनी परम्परामें ही प्रचलित हैं । जैसे (१) श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि में प्रदेश पुंजके स्थानमें 'दलिय ' दलक शब्दका प्रयोग हुआ है' । किन्तु कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णिमें इस शब्द के स्थान में मात्र 'अग्ग' अग्रशब्दका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । दलिय शब्दका प्रयोग भूसे दोनों में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता । (२) श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि में नपुंसक वेद के अर्थ में नपुंसकवेद शब्दका प्रयोग हुआ ही है । साथमें इस अर्थ में 'वरिसवर ' शब्दका भी प्रयोग किया गया है । जब कि कषायप्राभृत मूल और उसकी चूर्णिमें इस अर्थ में २. गा० ६२ और उसकी चूर्णि । १. गा० २२ और उमकी चूणि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 442