Book Title: Kasaypahudam Part 14 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना ७ मनाकरण आदि करणोंसे मात्र एकदेश कर्मप्रदेशोंके उपशम होनेको देशकरणोपशामना कहा गया है । आश्चर्य इस बातका है कि पचसंग्रह और कर्मप्रकृतिकी मलयगिरि टीकामें इसका नाम देश करणोपशामना होते हुए भी इसमें अकरणोपशामनाको कैसे परिगणित कर लिया गया है जो जयधवलामें प्रतिपादित देशकरणोपशामनाके लक्षणके विरुद्ध हैं । बेशकरणोपशामनाके भेव कषायप्राभृत चूर्णि में देशकरणोपशामनाके ये दो नाम आये है - देशकरणोपशामना और अप्रशस्त उपशामना । इसका स्पष्टीकरण करते हुए जयधवलामें लिखा है कि यह संसारी जीवोंके अप्रशस्त परिणामोंके निमित्तसे होती है, इसलिए इसका पर्यायवाची नाम अप्रशस्त उपशामना भी है और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अति तीव्र संक्लेश परिणामोंके कारण अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणकी प्रवृत्ति होती है । क्षपकश्रेणि और उपशमश्र णीमें विशुद्धतर परिणामोंके कारण इसका विनाश भी देखा जाता है, इसलिए भी यह अप्रशस्त है यह सिद्ध हो जाता है । इसका विशेष विवेचन कषायप्राभृतचूर्णिके अनुसार दूसरे अग्रायणीय नामक पूर्वकी पाँचवीं वस्तु अधिकारके चौथे महाकर्म प्रकृति नामक अनुयोगद्वार में देखना चाहिए । यह कषायप्राभृतचूर्ण और उसकी जयधवला टीकामें कहा गया है । किन्तु श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें इसके देशोपशामनाके अतिरिक्त अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना ये दो नाम और दृष्टिगोचर होते हैं । जब कि इनमेंसे अगुणोपशामना यह नाम कषायप्राभृत चूर्णिमें आगे-पीछे कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । यहाँ देशोपशामनाका अप्रशस्तोपशामनाके समान "अगुणोपशामना यह नाम होना चाहिए या नहीं, विचारका यह मुख्य मुद्दा नहीं है । यहाँ विचार तो इस बातका करना है कि यदि कषायप्राभृत चूर्णि लिखते समय यतिवृषभ आचार्यके सामने वे० कर्मप्रकृति उपस्थित थी तो वे देशोपशामना के पर्यायवाची नामोंका उल्लेख करते समय अगुणोपशामनाका उल्लेख करना क्यों भूल गये ? इससे स्पष्ट है कि देशोपशामनाका विवेचन देखने के लिए जो आचार्य यतिवृषभने अपनी चूर्णिमें 'एसा कम्मपयडीसु' पदका उल्लेख किया है उससे उनका आशय दूसरे पूर्वकी पाँचवी वस्तुके चौथे प्राभृतसे ही रहा है, श्वे० कर्म प्रकृतिसे नहीं । कसा पाहुड सुत्तकी प्रस्तावना में एक मुद्दा यह भी उपस्थित किया गया है कि श्वे० कमंप्रकृति में गाथा ६६ से ७१वीं गाथा तककी इन छह गाथाओं द्वारा देशोपशमनाका विस्तृत विवेचन किया गया है, इसलिए उसमें यह स्वीकार किया गया है कि आ० यतिवृषभके सामने श्वे ० कर्मप्रकृति रही है । उन्होंने देशोपशामनाके स्वरूप आदिको समझनेके लिए 'एसा कम्पयडीसु' लिखकर जिस कर्मप्रकृतिकी ओर संकेत किया है वह श्वे० कर्मप्रकृति ही है । किन्तु श्वे० कर्मप्रकृति की जिन ६ गाथाओंमें सब कर्मोंके उत्तर भेदोंकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेद से जिस देशोपशामनाका निर्देश किया गया है उसका आशय इतना ही है कि देशोपशामना अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ही होती है, अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में देशोपशामनाको व्युच्छित्ति ही रहती हैं सो यह अभिप्राय तो कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि में प्रतिपादित दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी उपशमना और क्षपणाके कथनसे ही फलित हो जाता है । यतिवृषभ आचार्यने अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणका स्वयं निषेध किया ही है । अत: मात्र इतने अभिप्रायकोPage Navigation
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