Book Title: Kasaypahudam Part 14 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh View full book textPage 7
________________ जयधवला तथा उस उदयसे परिणत कर्मको उदीर्ण कहते हैं। उसके बिना जिसने विपाक परिणाम प्राप्त नहीं किया है उसे अनुदीर्ण कहते हैं। इन अनुदीर्ण कर्मोंकी उपशामनाका नाम अनुदीर्णोपशामना है। यह करण परिणामोंके बिना होती है, इसलिए इसका दूसरा नाम अकरणोपशामना भी है । इसका विवेचन कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्वमें प्रष्टल है । श्वे० कर्मप्रकृति मूलमें तो इस सम्बन्धमें इतना ही कहा गया है कि इसके जानकार अनुयोगधरोंको हम प्रणाम करते हैं। किन्तु इसकी चूर्णिमें यह अवश्य ही स्वीकार किया गया है कि अकरणोपशामनाका विवेचन करनेवाला आगम विच्छिन्न हो जानेसे ही ग्रन्थकारने इसके जानकार अनुयोगधरोंको प्रणाम किया है। करणोपशामना और उसके भेद कर्णोपशामनाके दो भेद हैं-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । अप्रशस्त उपशामना आदि करणोंके द्वारा एकदेश कर्मप्रदेशोंका उदयादिपरिणामके बिना उपशान्तरूपसे रहना देशकरणोपशाामना है। इसमें किन्हीं करणोंका परिमित कर्मप्रदेशोंमें ही उपशान्तपना होता है, इसीलिये इसे देशकरणोपशामना कहते हैं। किन्तु इस विषयमें अन्य व्याख्यानाचार्योंका यह अभिप्राय है कि यहां इस प्रकारकी देश करणोपशामना विवक्षित नहीं है, क्योंकि इसका अकरणोपशामनामें समावेश हो जाता है। इसलिये यहाँ देशकरणोपशामताका दूसरा अभिप्राय है। यथा-दर्शनमोहनीयकी उपशामना होने पर कितने ही करण उपशान्त रहते हैं और कितने ही करण अनुपशान्त रहते हैं, यह देशकरणोपशामना है। सत्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीयकी उपशामना होने पर अपकर्षणकरण और परप्रकृतिसंक्रमकरण अनुपशान्त रहते हैं तथा शेष करण उपशान्त हो जाते हैं यह देशकरणोपशामना है। अथवा उपशमश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके अनिवृत्ति करणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण ये तीन करण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते हैं। अर्थात् संसार अवस्थामें उदय, संक्रम, उत्कर्षण और अपकर्षणरूपसे जो उपशान्त थे उनका इस समय पूनः उत्कर्षण आदि क्रियाका होना इसका नाम देशकरणोपशामना है। अथवा नपंसकवेदके प्रदेशोंका उपशमन करते हए जब तक सर्वोपशम नहीं होता तब तक उसका नाम देशकरणोपशामना है। इसी प्रकार आगे भी स्त्रीवेद आदिके विषयमें समझना चाहिये। किन्तु का प्रा० चूणिके अनुसार वीरसेन स्वामीने इसे स्वीकार नहीं किया है। तथा सब करणोंकी उपशामनाको सर्वोपशामना कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अप्रशस्त उपशामना आदि आठ करणोंका अपनी-अपनी क्रिया को छोड़कर उनका प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशान्त होना सर्वकरणोपशामना है। श्वे० कर्मप्रकृतिमें करणोपशामनाके सर्वकरणोपशामना और देशकरणोपशाना ये दो भेद किये गये हैं। उनमेंसे सर्वकरणोपशामनाके स्वरूप और उसकी प्रवृत्तिको स्पष्ट करनेके लिये इसमें विशेष कथन प्रस्तुत किया गया है। देशोपशामनाका कथन करते हुए उसकी चूर्णिमें इतना ही कहा गया है कि वह आठों कर्मोकी होती है । मलयगिरिने इस सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसका आधार श्वे० पंचसंग्रह है । उसमें यह उल्लेख आया है देशोपशामनाकरणकृता करणरहिता च । सर्वोपशामना तु करणकृतैवेति । __ आशय यह है कि देशोपशामना दो प्रकारकी होती है-करणकृत और करणरहित । सर्वोपशामना मात्र करणकृत ही होती है । जब कि जयधवलामें देशोपशामनाको अप्रशस्त उपशाPage Navigation
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