Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 5
________________ अन्तराय । इनके अनुक्रम से पांच, नौ, दो, अट्ठावीस, चार, एक सौ तीन, दो एवं पांच भेद होते हैं ॥ ३ ॥ मइसुअओहीमणकेवलाणि, नाणाणि तत्थ मइनाणं, । वंजणवग्गह चउहा, मणनयणविणिंदियचउक्का ॥४॥ ज्ञान पांच प्रकार के हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, और केवलज्ञान । मतिज्ञान व्यंजनावग्रह की अपेक्षा से मन और चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष इन्द्रिय चतुष्क के भेद से चार प्रकार के होते हैं ॥ ४ ॥ अत्थुग्गह-ईहाडवाय-धारणा करण-माणसेहिं छहा, । इय अट्ठवीस-भेअं, चउदसहा वीसहा व सुयं ॥ ५ ॥ मन और चक्षुरिन्द्रिय के अतिरिक्त चार इन्द्रियों की अपेक्षा से व्यंजनावग्रह चार प्रकार के होते हैं । अर्थावग्रह, ईहा, अपाय एवं धारणा, पाँच इन्द्रियों एवं मन की अपेक्षा से छह-छह प्रकार के होते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के अट्ठावीस भेद होते हैं। श्रुतज्ञान के चौदह अथवा बीस भेद होते हैं ॥ ५ ॥ अक्खर सन्नी सम्म, साइअं खलु सपज्जवसिअंच, । गमियं अंगपविटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥ ६ ॥ __ अक्षर श्रुत, संज्ञी श्रुत, सम्यक् श्रुत, सादि श्रुत, सपर्यवसित श्रुत, गमिक श्रुत, अंगप्रविष्ट श्रुत, ये सात भेद प्रतिपक्ष सहित चौदह भेद श्रुतज्ञान के रूप में जानने चाहिये ॥ ६ ॥ कर्मग्रंथ

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