Book Title: Karmgranth 01 02 03 Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ ओसन्नं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरिअ - निरएसु, । मज्जं व मोहणीअं, दुविहं दंसण- चरणमोहा ॥ १३ ॥ देव और मनुष्य गति में अधिकतर शाता वेदनीय कर्म का एवं तिर्यंच तथा नरक गति में अधिकतर अशाता वेदनीय कर्म का उदय होता है । मदिरा - पान के समान मोहनीय कर्म दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय रूप दो प्रकार के कहे गए हैं ॥ १३ ॥ दंसणमोहं तिविहं, सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं । सुद्धं अद्धविसुद्धं, अविसुद्धं तं हवई कमसो ॥ १४ ॥ दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार के है (१) सम्यक्त्व मोहनीय (२) मिश्र मोहनीय (३) मिथ्यात्व मोहनीय | अनुक्रम से पूर्वोक्त तीनों भेद, शुद्ध, अर्द्धशुद्ध और अशुद्ध पुंज रूप होते हैं ॥ १४ ॥ - जिअअजिअपुण्णपावा-सवसंवरबंधमुक्खनिज्जरणा, । जेणं सद्दहइ तयं, सम्मं खड़गाइ - बहुभेअं ॥ १५ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ तत्त्वों पर जिसके द्वारा श्रद्धा प्रकट होती है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं । वह सम्यक्त्व क्षायिक आदि अनेक भेदों वाला है ॥ १५ ॥ मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुहू जहा अन्ने, । नालियरदीव - मणुणो, मिच्छं जिणधम्म-विवरीअं ॥ १६ ॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ ७Page Navigation
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