Book Title: Karmgranth 01 02 03 Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 7
________________ चक्खु दिट्ठि-अचक्खु, सेसिदिअ-ओहि केवलेहिं च, । दंसणमिह सामन्नं, तस्सावरणं तयं चउ हा ॥ १० ॥ पदार्थों का सामान्य बोध दर्शन कहलाता है । चक्षु के द्वारा जानना चक्षुदर्शन है, शेष इन्द्रियों से जानना अचक्षुदर्शन है, इसके अतिरिक्त अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन होने से दर्शन चार प्रकार का है। उसका आवरण भी चार प्रकार का है ॥ १० ॥ सुहपडिबोहा निद्दा, निद्दा निद्दा य दुक्खपडिबोहा, । पयला ठिओवविट्ठस्स-पयल पयला उ चंकमओ ॥ ११ ॥ जगाने पर सुखपूर्वक जागृत हो, वह निद्रा है । दुःखपूर्वक (मुश्किल से) जागृत हो, वह निद्रा-निद्रा है । खड़े-खड़े अथवा बैठे-बैठे नींद लेना प्रचला है तथा चलते-चलते नींद लेना प्रचला-प्रचला है ॥ ११ ॥ दिणचिंति-अस्थकरणी, थीणद्धी अद्धचक्की-अद्धबला, । महुलित्तखग्गधारा-लिहणं व दुहाउ वेअणिअं ॥ १२ ॥ दिन में सोचा हुआ कार्य जिस निद्रा के वशीभूत होकर जीव रात्रि में करता है, उसे स्त्यानर्द्धि निद्रा कहते हैं । स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले जीव का बल अर्द्धचक्रीश्वर (वासुदेव) के बल से आधा बल होता है, वेदनीय कर्म मधुलिप्त तलवार को चाटने के समान है यह दो प्रकार का है (१) शातावेदनीय कर्म (२) अशातावेदनीय कर्म ॥ १२ ॥ कर्मग्रंथPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50