Book Title: Karmgranth 01 02 03
Author(s): Devendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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वज्रऋषभ नाराच, मनुष्यत्रिक अप्रत्याख्यानावरण कषाय तथा औदारिक द्विक का अंत होने से देशविरति गुणस्थानक में 67 कर्मप्रकृति का बंध होता है ॥६॥ तेवट्ठि पमत्ते सोग, अरइ अथिरदुग अजस अस्सायं । वुच्छिज्ज छच्च सत्त व, नेइ सुराउं जया निहूँ ॥ ७ ॥
भावार्थ : पाँचवें गुणस्थानक के अंत में प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का बंध विच्छेद होने से छठे प्रमत्त संयत गुणस्थानक में 63 प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं।
छठे गुणस्थानक के अंत में शोक, अरति, अस्थिर द्विक, अपयश और अशाता वेदनीय इन छ: प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है अथवा देव आयुष्य के बंध का विच्छेद करे तो सात कर्म प्रकृति का बंधविच्छेद होता है ॥७॥ गुणसट्ठि अप्पमत्ते, सुराउं बंधंतु जइ इहागच्छे । अन्नह अट्ठावन्ना जं आहारगदुगं बंधे ॥ ८ ॥
भावार्थ : यदि देव आयुष्य का बंध करते हुए कोई जीव अप्रमत्त गुणस्थानक को प्राप्त करता है तो 59 प्रकृतियों का बंध होता है, अन्यथा 58 प्रकृतियों का बंध होता है, क्योंकि यहाँ आहारक द्विक का बंध होता है ॥८॥ अडवन्न अपुव्वाइम्मि, निद्ददुगंतो छप्पन्न पण भागे । सुरदुग-पणिदि-सुखगइ, तसनव उरलविणु तणुवंगा ॥९॥ कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ
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